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Monday, September 23, 2013

माटी पुत्र को शत्—शत् प्रणाम


स्थान : जगदलपुर—कोंटा मार्ग पर स्थित जीरम घाट, समय : शाम के करीब साढ़े छह बजे, दिनांक : 25 मई 2013 हां यही तो वह काला दिन था जब बस्तर के वीर सपूत महेंद्र कर्मा समूचे बस्तर को हमेशा के लिए अलविदा कह गए। उनके गुजर जाने की तारीख उनके रक्त के बूंदों से लिखी गई। उनकी यह शहादत बस्तर की वादियों के लिए अजर—अमर हो चुका है। 

आज तीन माह बाद दंतेवाड़ा की पावन धरा में कांग्रेस अपने शहीद साथियों को श्रद्धांजलि देते शहीद माटी कलश यात्रा लेकर पहुंची है। यहां से इस यात्रा के चौथे चरण का आगाज किया जा रहा है। इस यात्रा की सुरक्षा को लेकर लगातार तैयारियों का दौर चल रहा है। इस बात का एहसास हो रहा है कि 25 मई को बस यही तो चूक हुई थी।  
26 मई की सुबह घाट पर बारिश और तूफान का नजारा साफ झलक रहा था। जो भी मौका—ए—वारदात पर पहुंचा तो देखा कि इधर—उधर बिखरी पड़ी लाशें देर शाम हुए दर्दनाक हादसे की सच्चाई को बयां कर रहीं थीं। वहां पड़ी लाशें केवल मौतों के आंकड़ों को आगे नहीं बढ़ा रहीं थीं बल्कि यह जता रही थी कि हम पर यह हमला कितना भारी था। यह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सीधा हमला था। यह हमला सत्ता की विफलता की कहानी को बयां कर रहा था। यह हमला सुरक्षा की गंभीर चूक को बयां कर रहा था। यह हमला प्रदेश के उस नेतृत्व को खत्म कर चुका था जिनके कंधों पर प्रदेश की बागडोर की उम्मीद बंधी थी। यह हमला परिवर्तन की उस आवाज पर किया गया था जिसके बूते सत्ता को सीधी चुनौती मिल रही थी।
बस्तरवासियों को गर्व है कि इस हमले में बस्तर टाइगर महेंद्र कर्मा ने अपने टाइगर होने का प्रमाण प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि युद्ध के मैदान में सीने में किस तरह से गोलियां खाई जाती हैं और वीरगति को प्राप्त किया जाता है। पीठ दिखाकर भगोड़ा बनकर कोई भी व्यक्ति समाज को सही राह नहीं दिखा सकता। अगर महेंद्र कर्मा चाहते तो वे अपनी सुरक्षा इंतजामों का उपयोग कर भाग सकते थे पर उन्होंने पीठ नहीं, सीना चुना। रत्नगर्भा बस्तर की माटी में जन्म लेने वाले महेंद्र कर्मा भी एक रत्न ही साबित हुए। जीरम घाट पर उनकी हत्या कर भले ही नक्सलियों ने माओवाद जिंदाबाद—महेंद्र कर्मा मुर्दाबाद के नारों से घाटी को गूंजित कर दिया हो पर वे अपने मोर्चे पर पराजित दिख रहे हैं। अपने मौत तक महेंद्र कर्मा ने उस चुनौती से हार मानने से इंकार कर दिया जिससे बड़ी—बड़ी सरकारें हार मानती दिख रही हैं।
इस हमले में वयोवृद्ध पं. विद्याचरण शुक्ल, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, राजनांदगांव के युवा व तेज तर्रार नेता उदय मुदलियार, पीसीसी अध्यक्ष के पुत्र दिनेश पटेल समेत कुल 31 लोगों की जान गई। इसमें नेता, सुरक्षा कर्मी और स्थानीय ग्रामीण भी शामिल थे। इन मौतों ने एक बात तो साफ कर दी है कि बस्तर में अब कोई सुरक्षित नहीं है। बस्तर में लोकतंत्र की मशाल लेकर पहुंचे इन नेताओं की हत्या के बाद यह तय हो गया है कि ये मौतें बस्तर में राजनीतिक व्यवस्था पर कुठाराघात की तरह हैं। तमाम विपरित परिस्थितियों के बावजूद बस्तर में परिवर्तन यात्रा लेकर पहुंचे कांग्रेसी नेताओं ने अपनी शहादत से बस्तर को एक संदेश दिया है कि यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लाल कुहासा को छाने ना दें। रही बात राजनीतिक आरोप प्रत्यारोपों की तो यह कहना कतई आसान नहीं है कि माओवादियों द्वारा घटित की गई इस घटना में साजिश जैसी कोई बात है या नहीं! बावजूद इसके सरकार इन मौतों के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार है। आखिर सरकार की ही जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने राज्य में हर व्यक्ति व संगठन को सुरक्षा की गारंटी दे। खैर बस्तर में जो कुछ हुआ यह देश के राजनीतिक इतिहास के काले दिन के रूप में ही पहचाना जाएगा। अपनी शहादत से बस्तर का नया इतिहास लिखने के लिए प्रेरित करने बस्तर माटी पुत्र को शत्—शत् प्रणाम…

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