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Monday, September 23, 2013

बस्तर भाजपा की दो धुरियां, डा. रमन को कमान


‘बस्तर में बिछाई गई नई राजनीतिक बिसात से पूरा खेल ही बदल सकता है। अभी यह देखना शेष है कि राजमहल में लगने वाले कमल की दरबार में कौन शामिल होता है और कौन महल की ओर आंखे तरेरता है। एक बात तो साफ है कि पं. श्यामाप्रसाद मुखर्जी टाउन हाल के सामने स्थित भाजपा कार्यालय और राजबाड़ा के पार्टी कार्यालय में दो अलग—अलग धुरियां दिखेंगी। जिसे संभालने की जिम्मेदारी भी डा. रमन की ही है। यानी बस्तर भाजपा की कमान अब सीधे रमन के हाथ।’

हां, यह डा. रमन सिंह की ही सोच और कूट​नीति का परिणाम है कि उन्होंने बस्तर इस्टेट के राजा का किला फतह कर लिया है। आजादी के सातवें दशक में बस्तर के काकतीय राजपरिवार के वर्तमान पदाधिकृत महाराज कमलचंद्र भंजदेव अब भाजपा के नेता हो चुके हैं। उनके भाजपा प्रवेश से पार्टी को कितना फायदा पहुंचेगा यह क​हना जल्दबाजी होगी पर बतौर राजा उन्हें नुकसान होगा यह कहना आसान है। छत्तीसगढ़ में भ्राजपा गुजरात पैटर्न में चुनाव मैदान में उतरने जा रही है। सारे कमान एक ही के पास बाकि फॉलोवर्स। यानी अबकी बार हैट्रिक लगाने के लिए भाजपा सब कुछ करने को तैयार है। पार्टी की आंतरिक सर्वे में कई विधायकों के काम काज पर सवाल उठे हैं तो जाहिर है कि कुछ तो पत्ते कटेंगे ही। काटने वाले के पास सारी शक्तियां होंगी तभी यह संभव है। अन्यथा जोड़ने का काम तो ठीक काटने का काम हमेशा विवादों के घेरे में रहता है। 
ऐसे में बस्तर सांसद बलीराम कश्यप की मौत के बाद ​रिक्तता को भरने के लिए रमन की चाहत थी कि एक ऐसा तुरूप का पत्ता लग जाए जिसे उस खाली जगह पर रखकर पार्टी की मार्केटिंग की जा सके। अंदर ही अंदर यह सौदेबाजी चलती रही कि बस्तर का राजपरिवार भाजपा से जुड़ जाए तो उसे क्या—क्या दिया जा सकता है? बस्तर राज परिवार आदिवासियों के देवी—देवता के पहले पुजारी हैं उन्हें वह दर्जा प्राप्त है जिसे लोग पूजते हैं। यही वजह थी कि काकतीय राजपरिवार के महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम था ‘आई प्रवीर द गॉड आफ आदिवासी’। जैसा कि शीषर्क से ही स्पष्ट है की बस्तर के राजा स्वयं को किस जगह पर देखते रहे हैं। अब इसी परिवार का संबंध प्रदेश के सत्तारूढ़ पार्टी के साथ हो गया है। इस ताजा घटनाक्रम के पीछे एक और तथ्य है कि भले ही बस्तर राज परिवार स्वयं को आदिवासियों का भगवान मानता हो पर वे आदिवासी नहीं है। यह भी एक सच है। यही वजह है कि राजपरिवार यहां आदिवासियों के लिए आरक्षित सीट से चुनाव नहीं लड़ सकता। 
बस्तर में बलीराम कश्यप के जिंदा रहते तक दोनों विधानसभा चुनावों में टिकट बंटवारे के समय उनके हिसाब से टिकट बांटे गए थे। परिणाम सबके सामने है। दोनों बार पार्टी बस्तर से सत्ता पर सवार हुई। बलीदादा की मौत के बाद बस्तर में केदार कश्यप और दिनेश कश्यप के सामने अपने पिता के कद के हिसाब से राजनीति की चुनौती थी जिसे उन्हें इस चुनाव में साबित करना था। अब ऐसा लग रहा है कि पार्टी को इस बात का ऐहसास हो चुका है कि कश्यप परिवार उतना मजबूत नहीं है जितना होना चाहिए था। दिनेश कश्यप सांसद हैं और पार्टी के भीतर सांसद होने के अलावा और कोई बड़ी बात दिख नहीं रही है। केदार कश्यप के साथ बाकि सारे लोग में से कुछ साथ वाले हैं कुछ सीनियर भी हैं। जिसके चलते उन्हें अपना नेता स्वीकार करने में दिक्कत हो रही थी। 
कश्यप परिवार विरोधी चाहते थे कि बस्तर को सीधे रमन सिंह हैंडल करें। डा. रमन सिंह चाहते थे कि वहां ऐसा कोई चेहरा मिल जाए जिसके माध्यम से वे अपना चेहरा दिखा सकें। कश्यप परिवार के विरोधियों ने ही राजपरिवार को पार्टी लाइन से जोड़कर नया समीकरण बनाने की नींव रखी। उस पर मुहर लगाना मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी थी। इसके बाद ही कमलचंद्र भंजदेव पर भाजपा ने पांसा फेंका। आखिरकार भाजपा में राजपरिवार के शामिल होने के बाद दूसरा गुट बेहद मजबूत स्थिति में आ गया है। वह चाहता है कि ‘राजा’ का वर्चस्व बना रहे ताकि कश्यप परिवार उबर ना पाए। ऐसे में आदिवा​सी नेतृत्व के साथ चलने वाली बस्तर भाजपा की कमान अब नए राजनीतिक समीकरण के साथ राजमहल से भी संचालित हो सकती है। एक बड़ा सवाल है कि क्या कमल चंद्र भंजदेव राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की वर्दी पहनकर पथ संचलन करते दिख सकते हैं शायद ऐसा संभव ना हो…। आरएसएस से संचालित होने वाली पार्टी के भीतरखाने में उसी की इज्जत है जो अंदर से इस वर्दी में दिखता हो।
राजा के भाजपा में प्रवेश के ठीक पहले मेरी एकात्म परिसर में एक वरिष्ठ भाजपा नेता से इस मसले पर बात हुई थी। मैनें पूछा था कि क्या बस्तर राजा भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो रहे हैं। उन्होंने तपाक से कहा कि इससे क्या फरक पड़ता है। वैसे भी वे अब कहने मात्र के लिए हैं। पहले जैसी स्थिति नहीं रही है। भाजपा में आएं ठीक, अगर कांग्रेस में गए तो भी हमारे पास ‘बाण’ हैं। मैं यह बता दूं कि जिस नेता से मेरी चर्चा हुई वे कश्यप परिवार के करीबी तो कतई नहीं हैं। ‘हां अगर राजा पार्टी में आ गए तो हम जरूर फायदा उठाएंगे।’ इस बार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, भाजपा और तीसरा मोर्चा सभी बस्तर में दांव खेलना चाह रहे हैं। 
सारा गणित यहां के आंकड़ों के आधार पर तय होना है। 12 में से कौन कितनी सीटें ले जाएगा। इस पर सत्ता का रंग और ढंग दोनों बदल सकता है। 12 में से 11 फिलहाल भाजपा के पास है। इनके पास खोने के लिए काफी कुछ है पाने के लिए मात्र एक सीट। कांग्रेस के पास खोने के लिए एक मात्र सीट है और पाने के लिए 11। तीसरा मोर्चा अगर खाता भी खोल ले तो परिदृश्य ही बदल सकता है। 
ऐसे में कमजोर नेतृत्व संकट से जुझ रहे पार्टी को डा. रमन सिंह ने राजा का सहारा दिया है। भाजपा को कुछ भी नुकसान हुआ तो राजा की इमेज पर असर पड़ेगा! यानी राजा के पास खोने की चुनौती है पाने के लिए कुछ भी नहीं। हैट्रिक बन गई तो सारा श्रेय डा. रमन ले जाएंगे। बस्तर में कोई आदिवासी नेता अपना दावा नहीं ठोक सकेगा कि उसके कारण….। खैर बस्तर में बिछाई गई नई राजनीतिक बिसात से पूरा खेल ही बदल सकता है। अभी यह देखना शेष है कि राजमहल में लगने वाले कमल की दरबार में कौन शामिल होता है और कौन महल की ओर आंखे तरेरता है। एक बात तो साफ है कि पं. श्यामाप्रसाद मुखर्जी टाउन हाल के सामने स्थित भाजपा कार्यालय और राजबाड़ा के पार्टी कार्यालय में दो अलग—अलग धुरियां दिखेंगी। जिसे संभालने की जिम्मेदारी भी डा. रमन की ही है। यानी बस्तर भाजपा की कमान अब सीधे रमन के हाथ।

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