बीते 25 मई को माओवादियों ने एक बड़े हमले को अंजाम देते हुए लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती पेश की। देश की सरकार और राजनीतिक पार्टी के नेता सभी चिंतित हुए। देश की मीडिया की नजर इस समस्या पर गहरी पड़ी। राष्ट्रीय न्यूज चैनलों में करीब एक हफ्ते तक इस हमले का असर दिखा। इस बीच हमले में शहीद हुए नेता और जवानों के साथ मारे गए कुछ बेगुनाह आम लोगों की अंत्येष्टि के बाद उनकी राख भी ठंडी हो गई।
मुद्दा फिर मुद्दा बनकर रहने की कगार पर है। बड़ी बात यह है कि माओवादियों ने 25 मई के हमले के बाद जो दबाव बनाया है वह वास्तव में चिंताजनक है। अब वे डीएम को सीधे पत्र लिख रहे हैं लोगों के नाम गिना रहे हैं और बता रहे हैं कि उनका अगला टार्गेट क्या है? दूसरी ओर प्रदेश से लेकर देश की सरकारें चिंता जाहिर करने मेें जुटी है। प्रधानमंत्री लगातार अपनी चिंता जता रहे हैं। इन चिंताओं से निजात पाने के लिए दिल्ली में बैठकों का दौर चल रहा है। इसी दौर में सोमवार को सर्वदलीय बैठक हुई। इसमें भी प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने नक्सलवाद को लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा तो माना है पर कार्रवाई क्या करेंगे इस पर कोई खुला विचार सामने लाने से कतराते नजर आए। यह मसला केंद्र निपटाए या राज्यों के मत्थे मढ़े। जनता को तो बस शांति चाहिए। चाहे वह बैलेट से आए या बुलेट से…। बस्तर में हाल यह है कि दिवंगत कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा के 13वीं में शामिल होने में लोगों को दहशत का सामना करना पड़ा। ऐसे में उनका परिवार किसके भरोसे अब फरसपाल में डेरा डाले रखे? रही बात सुरक्षा की तो यह बता दूं कि महेंद्र कर्मा की हत्या के बाद नक्सलियों ने दंतेवाड़ा और बीजापुर जिले को जोडऩे वाली फरसपाल-पांडेमुर्गा मार्ग पर दीवार खड़ी कर दी है। जिसे हटाने में सुरक्षा बलों का पसीना छूट रहा है। ऐसे में माओवादियों से सीधी लड़ाई और चुनौती देने का ढंग ही बेमानी लग रहा है।
खैर, सवाल बैठकों का है तो बता दें कि छत्तीसगढ़ सरकार ने करीब पांच बरस पहले नक्सल मुद्दे पर छत्तीसगढ़ विधान सभा में क्लोज डोर बैठक करवा चुकी है। इस बैठक में सभी 90 विधायकों ने अपनी चिंता जताई। खुलकर अपनी बातें रखीं। निर्णय हुए। नीतिगत निर्णय के आधार पर बैठकों का मजमून किसी के पास नहीं पहुंच सका। सो चिंता में क्या बातें रखीं गई और उन बातों पर अमल करने के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए? यह कभी भी स्पष्ट नहीं हो सका। ऐसा माना जा रहा है कि बैठक के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने केंद्र से माओवाद से निपटने के लिए विकास राशि बढ़ाने व सुरक्षा बलों को बढ़ाने की मांग रखी। अब केंद्र ने उनकी मांगों का मंजूर किया या नामंजूर यह पता नहीं चल सका। पर इतना पता है कि पांच सालों में प्रदेश में सुरक्षा बलों की बटालियन 20 से बढ़कर 30 हो चुकी है। दरभा हमले के बाद दो और बटालियन देने की घोषणा केंद्रीय गृहमंत्री ने की है। यानि, अब 32 हजार जवान माओवाद से निपटने के लिए प्रदेश के पास उपलब्ध होंगे। इन जवानों का पहले किस तरह से उपयोग किया गया और अब क्या उपयोग होगा? यह भी कोई नहीं जानता। रही बात विकास के लिए धन की तो कितनी राशि केंद्र ने दी और राज्य सरकार ने राशि से कितना विकास किया? यह भी कोई नहीं बता सकता। क्यों कि यह भी आंकड़ों में बहस का विषय है।
मेरे यह कहने का मतलब यह है कि हर बार नक्सली हमले के बाद बड़ी बहस होती है, चर्चा होती है, चिंता होती है। फिक्र और फक्र का दौर चलता है। बावजूद इसके परिस्थितियों में बदलाव आना तो दूर, इसके संकेत तक नहीं मिलते। छत्तीसगढ़ बनने के बाद तेजी से विकास का सपना छत्तीसगढिय़ों ने देखा। चुनिंदा शहरी क्षेत्रों में निर्माण से यह दिख रहा है और ग्रामीण क्षेत्र नई समस्याओं से घिरे दिख रहे हैं। आज भी प्रदेश के बड़े ग्रामीण हिस्से में पीने के पानी, बिजली और स्वास्थ्य की समस्या आम है। नए प्रदेश में जिलों की संख्या 18 से 28 हो गई। राज्य सरकार द्वारा फक्र से बताने के लिए यानि प्रशासन आम आदमी के और भी करीब। पर फिक्र की बात यह है कि केंद्र को भेजने वाली रिपोर्ट में पहले 18 जिले नक्सल प्रभावित थे अब 28 हो गए हैं।
हमले दर हमले, बारुदी विस्फोट, नक्सलियों की एंबुश के शिकार, माओवादियों का सीधा अटैक, रात को ब्लास्ट, दिन में फायरिंग, बाजार में फायरिंग, थाने में फायरिंग, दिन दहाड़े हत्या… और न जाने कितने तरीके। सभी का अंत मौत के आंकड़ों को बढ़ाता दिखता है। सरकार का हर नक्सली हमले के बाद एक ही जवाब सुन-सुन कर लोग उकता गए हैं। सच्चाई तो यह है कि अब लोगों को जवाब नहीं बल्कि जवाबी कार्रवाई चाहिए। यह समझना जरूरी है कि थोथे भाषणों और बयानबाजी ने नक्सलवाद का खात्मा नहीं होने वाला। यह स्पष्ट है कि नक्सली सत्ता चाहते हैं वे इस क्षेत्र की आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं। इसके जवाब में यहां के लोग हर पांच बरस में मतदान कर रहे हैं और लोकतंत्र के प्रति अपनी आस्था बचाए हुए हैं। इस जनता की दरकार नक्सलियों को भी उतनी ही है जितना लोकतांत्रिक व परंपरागत राजनीतिक व्यवस्था को संचालित करने के लिए जरूरी है। अगर इस विरोधाभाष को दूर करने के लिए सरकारें सीधी मेहनत करने से कतराएंगी, इसके निदान के रास्ते ढंूढने में केवल राजनीतिक फिक्र और फक्र का खेल खेलती रहेंगी तो कुछ भी नहीं होने वाला। बस्तर बारुद के ढेर पर बैठा है। विकास के रास्ते बंद होते दिख रहे हैं। यहां से निकलने वाली आवाजें माओवादी हमले का शिकार हो गई हैं। राजनीतिक योद्धा बलिराम कश्यप उम्र और बीमारी के शिकार हुए और महेेंद्र कर्मा को सरकार सुरक्षा नहीं दे पायी। एनएच 30 के जीरम घाट में नक्सली माओवाद जिंदाबाद के नारे लगाकर जंगल में फिर लौट गए हैं। उनकी आवाजें यहां की फिजां में गूंज रही हैं और आम लोगों के दहशत की फिक्र के जवाब में दिल्ली से रायपुर तक बैठकों का दौर और नेताओं के घुमावदार भाषणों पर चमचों का फक्र… चिंतनीय है।
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