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Monday, June 13, 2011

ऐसी संवेदनहीनता को क्या कहें?

दक्षिण बस्तर सुलग रहा है. यहाँ संवेदनाओं की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. यह बेमौत मारे जा रहे लोगों के परिजनों के लिए अमृत का कम कर सकता है. नक्सल प्रभावित क्षेत्र है तो मुठभेड़ तो होती रहेंगी. कभी नक्सली तो कभी फ़ोर्सेस को नुकसान भी उठाना पड़ेगा चूँकि सुरक्षा बलों के जवान आम नागरिकों की सुरक्षा की अहम ज़िम्मेदारी संभाल रहे हैं तो प्रशासन की प्राथमिकता इन जवानों और उनके परिजनों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए. यही आम नागरिकों की भी राय है. दंतेवाड़ा के रोल माडल बदल गये हैं, प्राथमिकताएँ बदल गयी हैं, संवेदना के शब्द बदल गये हैं, प्रशासनिक रवैया बदल गया है, ज़िम्मेदारियों के अहसास का तरीका भी बदल चुका है. बदलाओ के इस दौर मे काटेकल्याण मार्ग पर गाटम मे गुरुवार की रात नक्सलियों ने बारूदी विस्फोट कर १० सुरक्षा जवानों की हत्या कर दी. ये जवान दंतेवाड़ा से काटेकल्याण आधी रात तफरीह करने के लिए शौक से नहीं निकले थे. इन्हें यह ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी कि जनपितूरी सप्ताह के दौरान नक्सली इस क्षेत्र मे आम नागरिकों का नुकसान ना कर पाएँ. शुक्रवार को काटेकल्याण मे साप्ताहिक बाजार सज सके और इस बाजार मे जाने वाले हर आम आदमी को शासन के प्रति यह विश्वास हो कि नक्सली उनकी जिंदगी मे आसानी से बाधाएँ नही घोल सकते. इसके पिछे वजह भी यही थी कि बीते कुछ समय से नक्सली साप्ताहिक बाजार मे हमले कर ज़्यादा नुकसान पहुँचा रहे हैं. तोंगपाल बाजार मे एक जवान के साथ तीन ग्रामीणों की मौत इसका साक्षात उदाहरण है. गाटम मे दस जवान आधी रात नक्सली हमले मे शहीद हो गये. लाश ढोकर जिला अस्पताल पहुँचाए जाने के बाद से ही भीड़ लगी रही. इस नक्सली हमले मे अपने करीबियों को खोकर बिलखते लोगों के बीच संवेदना के मरहम की ज़्यादा ज़रूरत थी. शहर के सौंदर्यबोध को लेकर अभिभूत प्रशासन का संवेदना के सौंदर्य से रिश्ता बन ना सका यह लोगों ने देखा. तकलीफ़ हुई. पर किससे कहें? और क्यों? क्या इस संवेदना को भीख मे माँगने की ज़रूरत है. पुलिस लाइन कारली मे अंतिम सलामी के लिए भी आला प्रशासन के इंतजार के संदेश के साथ बुलावा बहद ख़तरनाक संवेदनहीन संकेत है. यदि ऐसी समझ अभी विकसित नही हो पाई है तो टीवी सीरियलों को देखकर भी विकसित की जा सकती है. कलर्स चैनल पर प्रसारित मुक्ति बंधन के नायक का एक संवाद ~ साल के शेष ३६४ दिन काम किया जा सकता है, पर श्राद्ध तो साल मे एक बार होता है, मैं अपने व्यावसायिक व्यस्तताओं के कारण श्राद्ध मे शामिल ना हो सकूँ तो इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ भी नहीं हो सकता.~ निश्चित तौर पर सौंदर्य की दरकार है. पर ऐसा सौंदर्य किस काम का जिसमे अपने लोगों के प्रति ही संवेदना शेष ना रह जाय. बिंजाम मे एक साथ तीन सपूतों का अंतिम संस्कार किया गया. मीडीया वहाँ पँहूची. जनप्रतिनिधि और जिला प्रशासन की गैर मौजूदगी की चर्चा होती रही. पहले तो इसी जिले में लोगों ने प्रशासन के नुमायनदों को को शहीद जवानों की लाश को उठाते घायलों को अस्पताल पहुँचाते, हाल-चाल पूछते देखा है. ऐसे में बिंजाम मे अगर लोगों को उम्मीद थी तो कुछ भी ग़लत नही था, अंतिम संस्कार तो किसी का इंतजार नहीं कर सकता पर पीछे प्रशासन के प्रति अविश्वास का माहौल छोड़ गया. दंतेवाड़ा जिले में प्रशासनिक आपातकाल का दौर चल रहा है. लिखने, पढ़ने, बोलने पर पाबंदी लगी हुई है. संवेदना के पक्ष मे पदर्शन का तो सवाल ही नहीं उठता. ऐसी संवेदनहीनता को क्या कहें, समझ मे नही आता.

1 comment:

  1. वहां के हालात से हम बाहरी लोग बेखबर है आप अपने ब्लाग के माध्यम से देश तक हाला पहुंचाये । आम जनता नक्सलवादियो का साथ क्यो दे रही है ? और सलवा जुड़ूम और नक्सलवाद के नाम पर आदिवासी समाज मे जो विभाजन हो जाने की खबर मिल रही है उस पर भी प्रकाश डालियेगा

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