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Tuesday, September 24, 2013

बस्तर की रणभूमि में कांग्रेस की उलझन

बस्तर की रणभूमि में अगर कांगे्रस टिकटों की उलझन से स्वयं को उबार लिया तो मैदानी मेहनत के बूते एंटी इनकंबैंसी फेक्टर को भुनाया भी जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि पहले खुद एकजुट हो जाओ। उसके बाद जनता के सामने पूरी रोटी खाकर जाओ।

मिशन 2013 के लिए बस्तर नई सरकार के स्वप्र को साकार करेगी। ऐसा यहां के रणनीतिकारों का मानना है। बस्तर और सरगुजा की आदिवासी बेल्ट के बूते दोनों बार भाजपा ने दस बरस तक सत्ता का स्वाद चख लिया। आगामी 26 को कांग्रेस युवराज राहुल गांधी के बस्तर आगमन को लेकर बड़ी तैयारी हो रही है। इसी तैयारी के साथ बस्तर में सत्ता वापसी की कोशिश पर जोर लगाने की जुगत भी चल रही है। आदिवासी सम्मेलन के बहाने बस्तर में पहुंच रहे राहुल गांधी यहां जीरम घाट पर नक्सली हमले के बाद पहली बार आ रहे हैं। हो सकता है कि वे यहां उस मामले को भी कुरेद जाएं। यह तो तय है कि नक्सली हमले के सवाल पर टारगेट में राज्य सरकार होगी। यह भी माना जा रहा है कि इसी के साथ जीरम हमले पर नई राजनीति का दौर भी शुरू होगा।
अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से अब तक पहली बार भारतीय जनता पार्टी को इतना लंबा अवसर सत्ता के संचालन के लिए प्राप्त हुआ है। वहीं सरगुजा और बस्तर के आदिवासी बेल्ट में कांग्रेस की साख क्यों गिरी? बस्तर की जनता का कांग्रेस से मोहभंग क्यों हो गया? इस पर अभी भी कोई चिंता हो रही हो ऐसा दिख नहीं रहा है। कांगे्रसी फिलहाल मुगालते में हैं कि एंटी इनकंबेसी फेक्टर काम करेगा और बस्तर से कांग्रेस को एकतरफा बढ़त के आसार हैं। मैदानी अवलोकन में जो हाल दिख रहा है उसके मुताबिक भारतीय जनता पार्टी बस्तर की लगभग सभी सीटों पर अपनी मैदानी तैयारी के साथ जुट गई है और कांग्रेस फिलहाल टिकटों की उलझन को लेकर गुत्थम गुत्था की स्थिति में दिख रही है। बस्तर में कांगे्रस की यही लड़ाई उसे खोखला करती रही है।
पहले बस्तर में मानकूराम सोढ़ी, अरविंद नेताम और महेंद्र कर्मा का अपना गुट हुआ करता था। तीनों अपने-अपने इलाकों में कांगे्रस के क्षत्रप रहे और उनके समर्थकों के बूते कांग्रेस लंबे समय तक महत्वपूर्ण भूमिका में रही। उम्र के ढलने के साथ मनकूराम सोढ़ी नेपथ्य में चले गए। अरविंद नेताम कई बार पार्टी बदलकर विश्वास के संकट से जूझ रहे हैं। महेंद्र कर्मा जीरम नक्सली हमले में शहीद हो गए। 2003 के बाद बस्तर में कांगे्रस का एक नया धड़ा सक्रिय हुआ जिसका नेतृत्व रायपुर से अजित जोगी कर रहे हैं। यहां 2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार की बड़ी वजह भी इसी गुट के खुले और भितरघात को माना जाता है। जिन क्षेत्रों में जोगी समर्थकों को टिकट नहीं दी गई वहां उनके दम पर निर्दलीयों ने पार्टी की हवा निकाली और जहां उन्हें निपटाना था उसके लिए उन्होंने राजनीति के सारे हथकंडे अपनाए। यही वजह है कि बस्तर में कांग्रेस के हाथ से 12 में से 11 सीटे सरक गईं।
बस्तर में कांग्रेस की राजनीति में बाहरी गुट के हावी होने का ही परिणाम रहा कि यहां की राजनीतिक आबो हवा पूरी तरह से बदल गई है। इस बार महेंद्र कर्मा के गुजर जाने के बाद एक नए रायपुरिया गुट का दबाव बस्तर में बढ़ रहा है वह है चरणदास महंत! महंत भली भांति जानते हैं कि अगर छत्तीसगढ़ में सत्ता में आना है तो बस्तर से उसकी चाबी लेनी होगी। बस्तर की जनता के बीच नई जिम्मेदारी मिलने के बाद से वे पूरी तरह सक्रिय हैं और अंदरखाने में पैनल में जो नाम भेजे गए हैं उसमें एक-एक नाम महंत के गुट से भी शामिल है। यानी बस्तर की राजनीति पूरी तरह से अब रायपुरिया हाथों में जाती नजर आ रही है। रायपुरिया राजनीति को लेकर यही उलझन इस बार मिशन 2013 की सबसे कठिन परीक्षा है। जिसमें पास होने के लिए बस्तरवासियों का भरोसा जीतना ज्यादा जरूरी है।
मजेदार बात तो यह है कि कांग्रेस के जिस दांव से बस्तर में पूरी बिसात बिखरी है अब वही गलती भाजपा में दोहराने की कोशिशें शुरू हुई हैं। बलीदादा की मौत के बाद लगातार यह स्थिति दिखाई दे रही है। बस्तर राजपरिवार के भाजपा प्रवेश के बाद रायपुर से पहुंची स्वागत की पाती यहां चर्चा में बनी हुई है। हांलाकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि भाजपा की रायपुरिया राजनीति का रंग बस्तरिया ग्रामीण मतदाताओं में कांग्रेस की तरह उलझन पैदा करेगा या नई राह दिखाएगा। खैर बस्तर की रणभूमि में अगर कांगे्रस टिकटों की उलझन से स्वयं को उबार लिया तो मैदानी मेहनत के बूते एंटी इनकंबैंसी फेक्टर को भुनाया भी जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि पहले खुद एकजुट हो जाओ। उसके बाद जनता के सामने पूरी रोटी खाकर जाओ।

कलेक्टर नहीं कांग्रेसी घायल...

कांगे्रसियों के लिए बुरी खबर हो सकती है कि अंकित आनंद कलेक्टर बस्तर घायल हो गए हैं। अंकित अपनी स्टाइल के अफसर हैं। इन्हें किसी नेता को अपने कंधे पर हाथ रखने देना मंजूर नहीं है। दंतेवाड़ा में उनकी कार्यशैली से परिचित लोग जानते हैं कि उखड़े स्वभाव के सीधे चलने वाले ऐसे अफसर कम ही दिखते हैं। अंकित की कार्यशैली बताती है कि उन्हें इस बात की फिक्र भी नहीं कि उन्हें बस्तर में कलेक्टरी के लिए कितने दिन का अवसर मिलेगा? ऐसे अफसर से कांगे्रसी बेहद खुश थे। उन्हें लग रहा था कि चुनाव के समय आचार संहिता का सत्ता के प्रभाव में आचार नहीं डाला जाएगा। परिणाम स्वरूप कम खर्चे में कांग्रेसी अपना प्रचार अभियान चलाकर भाजपा को टक्कर दे सकेंगे। लोहंडीगुड़ा दौरे के दौरान कलेक्टर और एसपी के घायल होने के बाद कांग्रेसी बेचैन हैं। कांग्रेसियों को लग रहा है कि दुर्घटना में कलेक्टर नहीं कांग्रेसी घायल हुए हैं।

चेंबर के चुनाव का असर...

बस्तर चेंबर आफ कामर्स के कुल सदस्यों की संख्या 1824 है पर इसके निर्वाचन का असर पूरे बस्तर पर एक समान पड़ता है। इस बार चेंबर के चुनाव में दल-गत राजनीति को शामिल करने की कोशिशें की गईं। परिणाम बता रहा है कि इसे व्यापारियों ने नकार दिया। भंवर बोथरा की दूसरी पारी एक तरफा जीत के साथ आई है। बोथरा मूलत: कांग्रेसी विचारधारा के हैं। इस जीत के साथ हो सकता है वे आने वाले समय में अपनी किसी और पारी की तैयारी भी कर रहे हों। सो सनद रहे वक्त पर काम आवे...।

चर्चा में आ•ा...

बस्तर सांसद दिनेश कश्यप को मुख्यमंत्री अपने साथ बीजापुर क्यों नहीं ले गए?
क्या कमल चंद्र भंजदेव को भाजपा सरकार दशहरा में रथारूढ़ कर नई राजनीति को जन्म देगी?
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Monday, September 23, 2013

मनगढ़ंत बातों की बुनियाद पर जुटा तंत्र


‘आंडवे नंबल्क इंग्ये सावड़िक्य अनपीरक्रार बलार्क नंब यन्ना सच्चीय मुड्यिुम।’ तमिल में कही गई इन बातों का मतलब ‘ईश्वर ने हमें यहां पर अगर मरने के लिए भेजा है तो हम क्या कर सकते हैं?’ यह बात मेरे एक तमिल मित्र ने सीआरपीएफ के दो जवानों के बीच हो रहे संवाद में सुनी थी। इन जवानों को दंतेवाड़ा में उनकी बटालियन के साथ पोस्ट किया गया था। इससे पहले वे जम्मू कश्मीर में अपनी सेवा दे चुके थे। यह वाक्या करीब तीन बरस पहले 2011 में मई—जून के बीच हुआ। दो जवानों के संवाद को सुनने के बाद मेरे ​तमिल मित्र ने उन्हें तमिल में बात कर पास बुलाया और उनके दिल का हाल जानने के कोशिश की।

वे बस्तर में अपनी पोस्टिंग से बेहद घबराए लग रहे थे। उन्हें लग रहा था कि यहां से अगर जिंदा लौट पाए तो…। खैर यह तो यहां के हालात को बयां करने की कोशिश भर है। आखिर हमारी सरकार इस बात को कब समझे कि हालात काबू में नहीं है और इसे किस तरह से काबू में लाया जाए। बस्तर संभाग के सभी सातों जिलों में नक्सलियों का दायरा बेहद तेजी के साथ बढ़ा है।
दस बरस में विकास की घोषणाओं के बीच यह कड़वा सच तमिल में की गई इस वार्तालाप से साफ समझा जा सकता है। यानी बस्तर में अपनी सेवा देने पहुंचने वाली फोर्स की मनोस्थिति क्या है? अगर इस मनोस्थिति में फोर्स से आप बहुत कुछ की उम्मीद लगाए बैठें है तो आप पूरी तरह से गलत हैं।
शनिवार की अल सुबह पड़ोसी राज्य मलकानगिरी में वहां तैनात फोर्स ने उड़ीसा के इतिहास में सबसे बड़ी कामयाबी हासिल की है। पोड़िया थाना क्षेत्र में हुए मुठभेड़ में 14 नक्सलियों को मार गिराया। बड़ी मात्रा में असलहा बरामद किया गया है। कैंप के सामान की बरामदगी इस बात की पुष्टि कर रहा है कि यह मुठभेड़ कम से कम फर्जी तो नहीं है।
इस कामयाबी के बाद छत्तीसगढ़ के डीजी रामनिवास और एडीजी इंटीलिजेंस मुकेश गुप्ता ने जो तथ्य पेश किया है वह बेहद चौंकाने वाला है। छत्तीसगढ़ पुलिस की इनपुट पर उड़ीसा में कार्रवाई से सफलता की कहानी को मलकानगिरी के एसपी अखिलेश्वर सिंह ने सिरे से नकार दिया है। क्या छत्तीसगढ़ पुलिस केवल इसी तरह की मनगढ़ंत बातों की बुनियाद पर नक्सलवाद से निपटने में जुटी है? यह तथ्य बेहद चिंताजनक है।
रही बात सरकार की तो उसे इस बात का गौरव बखान करने से पहले सोचना चाहिए कि उसने छत्तीसगढ़ के दक्षिणी हिस्से को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। उसे नक्सलवाद के मसले पर लोगों का भरोसा हासिल नहीं हो पा रहा है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस को लोग इस मामले में पाक साफ मान रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि चाहे केंद्र की युपीए सरकार हो या राज्य की भाजपा सरकार दोनो ने नक्सलवाद के मसले को एक—दूसरे पर ठीकरा फोड़ने भर के लिए रख छोड़ा है।
ताड़मेटला में 76 जवानों की शहादत के बाद दुनिया के सबसे बड़े पैरा मिलट्री फोर्स के हौसले पर सीधा असर पड़ा है। यहां आने वाली ​फोर्स मन ही मन इस बात का ताना—बाना बुनते नजर आती है कि उसे सुरक्षित बिना नुकसान यहां से लौटना है। युद्ध के हालात हैं पर जवान मन से युद्ध के लिए तैयार नहीं हैं। फिलहाल छत्तीसगढ़ में सरकार चुनाव की तैयारी में जुटी है। भाजपा सरकार की विकास यात्रा पूरी हो चुकी है। विपक्ष कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा भी झीरम घाट पर नक्सली हमले का शिकार होने के बाद पूरी हो चुकी है। झीरम घाट पर नक्सली हमले की जांच देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी एनआईए के जिम्मे है। ​अभी तक उसे क्या सफलता मिली और कब तक सफलता की उम्मीद की जाए यह सवालों में है। इस हमले के बाद सरकार चाहे केंद्र हो या राज्य क्या सबक लिया यह समझ में नहीं आ रहा है।
बस्तर में हालात के लिए राज्य सरकार की जिम्मेदारी से इंकार नहीं किया जा सकता। नक्सल मोर्चे पर केंद्र और राज्य सरकार की न तो स्पष्ट नीति है और न ही स्पष्ट कार्रवाई! जिसका सीधा असर पड़ना स्वा​भाविक है। जिला पुलिस बल के एक जवान कहते हैं कि ‘भाई साहब उनके (नक्सली) पास तो खोने के लिए कुछ भी नहीं है हमारे पास बहुत कुछ है। हमारे पास परिवार है, जिम्मेदारी है जिससे पलायन नहीं कर सकते। सो इस सोच का असर पर हमारी गतिविधियों पर पड़ता है।’
छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में नक्सली मुवमेंट से निपटने में राज्य की नीति ही कारगर साबित हुई है। उसने अपनी सीमा के भीतर समस्या से निपटने के लिए केंद्र की ओर टकटकी लगाने की बजाए आंतरिक सुरक्षा नीति पर गंभीरता से काम किया। आंध्र प्रदेश में कई बातें अनुकरणीय हैं पहली यह है कि उसने यह माना कि नक्सलवाद से निपटने के लिए कानून के दायरे में रहकर सही काम किया जाए। अपने खुफिया सूचना तंत्र को ज्यादा मजबूत किया जाए। आत्मसमर्पण की नीति का सही पालन किया जाए। जरूरत पड़ने पर सधी हुई सीधी कार्रवाई की जाए। छत्तीसगढ़ में ऐसा क्यों नहीं हो सका? सच्चाई तो यह है कि यहां हम अपने इलाके के राष्ट्रीय राजमार्ग का न तो निर्माण करवा पा रहे हैं और ही उसकी हालत सुधार रहे हैं। जिन इलाकों में नक्सलियों की पैठ की सूचना मिल रही है उसे उसके हाल पर छोड़ रहे हैं। नीतियां तो खूब बनाई पर उस पर अमल जैसी स्थिति नहीं दिख रही। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री की योग्यता? समझ? और कार्रवाई को तो लोग देख समझ ही रहे हैं। जब तक प्रदेश सरकार अपने इलाके में हो रही नक्सली हिंसा के खिलाफ सही कार्रवाई करने के बजाए इधर—उधर जिम्मेदारी थोपने और खाली हाथ बैठकर श्रेय लेने का जुगाड़ करने वाले अफसरों के भरोसे रहेगी तो वही होगा जो हो रहा है।

बस्तर भाजपा की दो धुरियां, डा. रमन को कमान


‘बस्तर में बिछाई गई नई राजनीतिक बिसात से पूरा खेल ही बदल सकता है। अभी यह देखना शेष है कि राजमहल में लगने वाले कमल की दरबार में कौन शामिल होता है और कौन महल की ओर आंखे तरेरता है। एक बात तो साफ है कि पं. श्यामाप्रसाद मुखर्जी टाउन हाल के सामने स्थित भाजपा कार्यालय और राजबाड़ा के पार्टी कार्यालय में दो अलग—अलग धुरियां दिखेंगी। जिसे संभालने की जिम्मेदारी भी डा. रमन की ही है। यानी बस्तर भाजपा की कमान अब सीधे रमन के हाथ।’

हां, यह डा. रमन सिंह की ही सोच और कूट​नीति का परिणाम है कि उन्होंने बस्तर इस्टेट के राजा का किला फतह कर लिया है। आजादी के सातवें दशक में बस्तर के काकतीय राजपरिवार के वर्तमान पदाधिकृत महाराज कमलचंद्र भंजदेव अब भाजपा के नेता हो चुके हैं। उनके भाजपा प्रवेश से पार्टी को कितना फायदा पहुंचेगा यह क​हना जल्दबाजी होगी पर बतौर राजा उन्हें नुकसान होगा यह कहना आसान है। छत्तीसगढ़ में भ्राजपा गुजरात पैटर्न में चुनाव मैदान में उतरने जा रही है। सारे कमान एक ही के पास बाकि फॉलोवर्स। यानी अबकी बार हैट्रिक लगाने के लिए भाजपा सब कुछ करने को तैयार है। पार्टी की आंतरिक सर्वे में कई विधायकों के काम काज पर सवाल उठे हैं तो जाहिर है कि कुछ तो पत्ते कटेंगे ही। काटने वाले के पास सारी शक्तियां होंगी तभी यह संभव है। अन्यथा जोड़ने का काम तो ठीक काटने का काम हमेशा विवादों के घेरे में रहता है। 
ऐसे में बस्तर सांसद बलीराम कश्यप की मौत के बाद ​रिक्तता को भरने के लिए रमन की चाहत थी कि एक ऐसा तुरूप का पत्ता लग जाए जिसे उस खाली जगह पर रखकर पार्टी की मार्केटिंग की जा सके। अंदर ही अंदर यह सौदेबाजी चलती रही कि बस्तर का राजपरिवार भाजपा से जुड़ जाए तो उसे क्या—क्या दिया जा सकता है? बस्तर राज परिवार आदिवासियों के देवी—देवता के पहले पुजारी हैं उन्हें वह दर्जा प्राप्त है जिसे लोग पूजते हैं। यही वजह थी कि काकतीय राजपरिवार के महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम था ‘आई प्रवीर द गॉड आफ आदिवासी’। जैसा कि शीषर्क से ही स्पष्ट है की बस्तर के राजा स्वयं को किस जगह पर देखते रहे हैं। अब इसी परिवार का संबंध प्रदेश के सत्तारूढ़ पार्टी के साथ हो गया है। इस ताजा घटनाक्रम के पीछे एक और तथ्य है कि भले ही बस्तर राज परिवार स्वयं को आदिवासियों का भगवान मानता हो पर वे आदिवासी नहीं है। यह भी एक सच है। यही वजह है कि राजपरिवार यहां आदिवासियों के लिए आरक्षित सीट से चुनाव नहीं लड़ सकता। 
बस्तर में बलीराम कश्यप के जिंदा रहते तक दोनों विधानसभा चुनावों में टिकट बंटवारे के समय उनके हिसाब से टिकट बांटे गए थे। परिणाम सबके सामने है। दोनों बार पार्टी बस्तर से सत्ता पर सवार हुई। बलीदादा की मौत के बाद बस्तर में केदार कश्यप और दिनेश कश्यप के सामने अपने पिता के कद के हिसाब से राजनीति की चुनौती थी जिसे उन्हें इस चुनाव में साबित करना था। अब ऐसा लग रहा है कि पार्टी को इस बात का ऐहसास हो चुका है कि कश्यप परिवार उतना मजबूत नहीं है जितना होना चाहिए था। दिनेश कश्यप सांसद हैं और पार्टी के भीतर सांसद होने के अलावा और कोई बड़ी बात दिख नहीं रही है। केदार कश्यप के साथ बाकि सारे लोग में से कुछ साथ वाले हैं कुछ सीनियर भी हैं। जिसके चलते उन्हें अपना नेता स्वीकार करने में दिक्कत हो रही थी। 
कश्यप परिवार विरोधी चाहते थे कि बस्तर को सीधे रमन सिंह हैंडल करें। डा. रमन सिंह चाहते थे कि वहां ऐसा कोई चेहरा मिल जाए जिसके माध्यम से वे अपना चेहरा दिखा सकें। कश्यप परिवार के विरोधियों ने ही राजपरिवार को पार्टी लाइन से जोड़कर नया समीकरण बनाने की नींव रखी। उस पर मुहर लगाना मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी थी। इसके बाद ही कमलचंद्र भंजदेव पर भाजपा ने पांसा फेंका। आखिरकार भाजपा में राजपरिवार के शामिल होने के बाद दूसरा गुट बेहद मजबूत स्थिति में आ गया है। वह चाहता है कि ‘राजा’ का वर्चस्व बना रहे ताकि कश्यप परिवार उबर ना पाए। ऐसे में आदिवा​सी नेतृत्व के साथ चलने वाली बस्तर भाजपा की कमान अब नए राजनीतिक समीकरण के साथ राजमहल से भी संचालित हो सकती है। एक बड़ा सवाल है कि क्या कमल चंद्र भंजदेव राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की वर्दी पहनकर पथ संचलन करते दिख सकते हैं शायद ऐसा संभव ना हो…। आरएसएस से संचालित होने वाली पार्टी के भीतरखाने में उसी की इज्जत है जो अंदर से इस वर्दी में दिखता हो।
राजा के भाजपा में प्रवेश के ठीक पहले मेरी एकात्म परिसर में एक वरिष्ठ भाजपा नेता से इस मसले पर बात हुई थी। मैनें पूछा था कि क्या बस्तर राजा भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो रहे हैं। उन्होंने तपाक से कहा कि इससे क्या फरक पड़ता है। वैसे भी वे अब कहने मात्र के लिए हैं। पहले जैसी स्थिति नहीं रही है। भाजपा में आएं ठीक, अगर कांग्रेस में गए तो भी हमारे पास ‘बाण’ हैं। मैं यह बता दूं कि जिस नेता से मेरी चर्चा हुई वे कश्यप परिवार के करीबी तो कतई नहीं हैं। ‘हां अगर राजा पार्टी में आ गए तो हम जरूर फायदा उठाएंगे।’ इस बार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, भाजपा और तीसरा मोर्चा सभी बस्तर में दांव खेलना चाह रहे हैं। 
सारा गणित यहां के आंकड़ों के आधार पर तय होना है। 12 में से कौन कितनी सीटें ले जाएगा। इस पर सत्ता का रंग और ढंग दोनों बदल सकता है। 12 में से 11 फिलहाल भाजपा के पास है। इनके पास खोने के लिए काफी कुछ है पाने के लिए मात्र एक सीट। कांग्रेस के पास खोने के लिए एक मात्र सीट है और पाने के लिए 11। तीसरा मोर्चा अगर खाता भी खोल ले तो परिदृश्य ही बदल सकता है। 
ऐसे में कमजोर नेतृत्व संकट से जुझ रहे पार्टी को डा. रमन सिंह ने राजा का सहारा दिया है। भाजपा को कुछ भी नुकसान हुआ तो राजा की इमेज पर असर पड़ेगा! यानी राजा के पास खोने की चुनौती है पाने के लिए कुछ भी नहीं। हैट्रिक बन गई तो सारा श्रेय डा. रमन ले जाएंगे। बस्तर में कोई आदिवासी नेता अपना दावा नहीं ठोक सकेगा कि उसके कारण….। खैर बस्तर में बिछाई गई नई राजनीतिक बिसात से पूरा खेल ही बदल सकता है। अभी यह देखना शेष है कि राजमहल में लगने वाले कमल की दरबार में कौन शामिल होता है और कौन महल की ओर आंखे तरेरता है। एक बात तो साफ है कि पं. श्यामाप्रसाद मुखर्जी टाउन हाल के सामने स्थित भाजपा कार्यालय और राजबाड़ा के पार्टी कार्यालय में दो अलग—अलग धुरियां दिखेंगी। जिसे संभालने की जिम्मेदारी भी डा. रमन की ही है। यानी बस्तर भाजपा की कमान अब सीधे रमन के हाथ।

दूसरी पीढ़ी के कांग्रेस नेता और बस्तर….


बस्तर बदलाव के दौर से गुजर रहा है। यहां पहली पीढ़ी के नेता गुजरे जमाने की बात हो चुके हैं। आजादी के बाद यह पहला मौका होगा जब यहां वास्तव में वे नेता नहीं दिखेंगे जिनके नाम पर कभी बस्तर की राजनीति थर्राती थी। चाहे मामला प्रदेश की राजनीति में गुटीय समीकरण का हो या बस्तर में मुद्दों की राजनीति का…। वर्तमान में विपक्ष में दस बरस से बैठी कांग्रेस में एक खालीपन साफ दिखाई दे रहा है। कभी अरविंद नेताम, मनकूराम सोढ़ी और महेंद्र कर्मा की गुटीय राजनीति अपनी—अपनी आइडियोलॉजी के दम पर चलती रही। पर बस्तर की परिस्थितियां बदली और राजनीति की दशा—दिशा ही बदल गई है। ऐसे में बस्तर की कांग्रेस की राजनीति आने वाले दिनों में किस ओर किसके नेतृत्व में फलेगी—फूलेगी इस पर दबी जुबां से मंथन… 

छबिला नेताम
कांग्रेस सरकार में मंत्री रहते हुए हवाला घोटाले में नाम आने के बाद अरविंद नेताम की राजनीति पर सीधा असर पड़ा। 1996 के चुनाव में पार्टी ने तय किया कि ऐसे लोगों की टिकट नहीं दी जाएगी जिस पर किसी तरह का आरोप हो। परिणाम स्वरूप अरविंद नेताम के सामने अपनी पत्नी को टिकट दिए जाने का ​ही विकल्प रह गया। इस तरह से छबिला नेताम कांग्रेस टिकट से सांसद निर्वाचित हुईं और उनके दौर में अरविंद नेताम सांसद पति बनकर बैठे रहे। कोई ऐसी खास बात प्रभावित नहीं कर पाई जिससे छबिला नेताम बस्तर की राजनीति में धुरी बनकर उभर सकें।
शिव नेताम
तत्कालीन केंद्रीय मंत्री के छोटे भाई शिवनेताम की राजनीति अरविंद नेताम से शुरू हुई और वहीं खत्म हो गई ऐसा लगता है। 1993 में पहली बार निर्वाचित हुए और दिग्विजय मंत्रीमंडल में अरविंद नेताम के कोटे से वन मंत्री के पद को सुशोभित किया। वर्तमान में कांग्रेस और कांकेर की राजनीति केवल नाम ही बाकि है। अपनी खामियों के कारण 1998 के विधानसभा चुनाव में पराजित हुए और ऐसा कुछ खास नहीं है जिसे उपलब्धियों में गिना जाए।
डा. प्रीति नेताम
कभी देश की कांग्रेस राजनीति के सिरमौर रहे वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम इकलौते बस्तरिया नेता रहे जिन्हें केंद्रीय मंत्रीमंडल में कृषि राज्य मंत्री जैसा पद भी मिला। अपने दौर में उन्होंने जो कुछ किया उसका प्रतिफल बस्तर के लोक भोग रहे हैं। विकास के जो भी अवरोध दिखाई दे रहे हैं उसमें अरविंद नेताम का बड़ा योगदान रहा है। उनकी बेटी डा. प्रीति नेताम को पिछले चुनाव में कांकेर विधानसभा क्षेत्र से टिकट मिली पर कांकेर के मतदाताओं ने उन्हें नकार दिया। अरविंद नेताम के पुत्र राजनीति से परे अपनी व्यक्तिगत जीवन पर ज्यादा भरोसा करते हैं।
शंकर सोढ़ी
कभी बस्तर लोक सभा क्षेत्र से यहां के अविजित योद्धा के रूप में मनकूराम सोढ़ी ने विधानसभा से लेकर संसद तक में करीब 30 बरस तक प्रतिनिधित्व किया। उनके परिवार से एक मात्र पुत्र को नेता के रूप में पहचान मिली वह भी पिता की छत्र छाया में वे रहे शंकर सोढ़ी। बस्तर की उम्मीद के मुताबिक न तो कूबत दिखी और न ही वह रंग—ढंग जिस पर बस्तरिया भरोसा कर सकें। 1993 में पहली ही जीत के बाद दिग्विजय सिंह मंत्रीमंडल में मनकूदादा के प्रभाव के चलते पद पर बैठे। अपने कार्यकाल में ऐसा कुछ भी नहीं कर पाए जिससे यह साबित हो कि उन्होंने अपने राजनीति के दौरान बस्तर का हित किया हो!
दीपक कर्मा और छविंद्र कर्मा
ये दोनों नाम बस्तर के शहीद कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा के पुत्र हैं। अनायास पिता की छत्रछाया हटने से प्रदेश की राजनीति में इनकी भूमिका तलाशी जा रही है। इनमें से दीपक कर्मा पिछले दो कार्यकाल से दंतेवाड़ा नगर पंचायत के निर्वाचित अध्यक्ष हैं। छविंद्र कर्मा पिछले कार्यकाल में दंतेवाड़ा जिला पंचायत के अध्यक्ष निर्वाचित रहे। पिता के जीते जी ​दीपक कर्मा संगठन की राजनीति में सक्रिय हुए हैं और फिलहाल प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं। पिता की मौत से पहले दीपक के पास प्रदेश कांग्रेस में सचिव का पद था। युवक कांग्रेस के लोक सभा उपाध्यक्ष भी चुने गए। पर कांग्रेस की राजनीति में अनुभव के नाम पर पिता का नाम के सिवा फिलहाल ऐसा कुछ नहीं है जिससे बस्तर की राजनीति को नई दिशा मिल सके। महेंद्र कर्मा की मौत के बाद कर्मा ब्रदर्श के सामने दंतेवाड़ा की राजनीति में वापसी की सबसे बड़ी चुनौती है। कांग्रेसी नेता भी मान रहे हैं कि इसके लिए उन्हें मैदानी मेहनत के साथ पिता के साथियों को साथ लेकर चलना होगा। अच्छे बुरे में फर्क और राजनीति के खेत में मतों की फसल आसानी से तैयार नहीं होती इस तथ्य को समझते हुए आगे बढ़ना होगा।
कवासी लखमा
पहले सरपंच फिर कांग्रेस टिकट से विधायक और अब प्रदेश के कांग्रेस में जोगी गुट के सक्रिय नेता कवासी लखमा को राजनीति में लाने का श्रेय दिग्विजय सिंह को जाता है। पर वे समय के साथ पाला बदलते हुए जोगी खेमे में समाहित हो गए। कवासी लखमा भले ही अनपढ़ हैं पर अपनी विशिष्ठ शैली के चलते सुर्खियों में ही रहते हैं। बलीदादा की मौत के बाद कांग्रेस ने बस्तर लोक सभा का टिकट देकर बड़ा मौका दिया। पर पराजित हो गए। हांलाकि वर्तमान में प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में वे ही एक मात्र निर्वाचित नेता हैं जो सदन में बस्तर का प्रति​निधित्व कर रहे हैं। पहला कार्यकाल दिग्विजय सिंह के साथ दूसरा कार्यकाल आधा दिग्विजय सिंह और आधा अजीत जोगी के साथ गुजरा। कर्मा गुट के खिलाफ दिग्विजय सिंह और अजीत जोगी के तुरुप के इक्के बने रहे। फायदा भी खूब उठाया। नाम के अनपढ़ हैं पर पढ़े लिखों को भी राजनीति पढ़ाने में महारत हासिल कर चुके हैं। बावजूद इसके कवासी लखमा के पास ऐसा कुछ खास नहीं दिख रहा जिससे बस्तर की राजनीति को बड़ा फायदा हो सके।
कवासी हरिश लखमा
कोंटा विधायक के रूप में कवासी लखमा तीसरी बार लगातार ​निर्वाचित हुए। तीसरी पारी में मतों का अंतर मामूली के स्तर पर आ पहुंचा है। इस दौरान कवासी लखमा के पुत्र हरिश अगली पीढ़ी के नेता के रूप में उभरकर सामने आए हैं। हरिश लखमा की राजनीति में अजीत जोगी के पुत्र अमित की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। पिता से परे जोगी स्टाईल में राजनीति की पाठशाला में पढ़ाई कर रहे हैं। वर्तमान में सुकमा जनपद अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित हैं। आक्रामक राजनीति करते यदा—कदा दिखाई दे जाते हैं। यह भी एक तथ्य है कि कवासी हरिश ने युवक कांग्रेस चुनाव में दीपक कर्मा को पछाड़ते हुए लोकसभा अध्यक्ष पद पर कब्जा जमाया था। जोगी को बस्तर में जिस कांग्रेसी विधायक पर सबसे ज्यादा भरोसा है उनमें कवासी लखमा नंबर वन पोजिशन में हैं। हरिश लखमा को अमित जोगी हैंडल करते हैं टारगेट एक मात्र महेंद्र कर्मा के परिवार के खिलाफ दूसरी पी​ढ़ी का नेता खड़ा करना! हरिश लखमा में भविष्य की राजनीति छिपी दिख रही है। पर फिलहाल कोई ऐसी बात नहीं जो बस्तरवासियों को लुभा सके।
हो सकता है कि इन नेताओं के अतिरिक्त भी कोई नया चेहरा हो जो पहली पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता हो। पर नेपथ्य में छिपे चेहरों को भांपा नहीं जा सका है। दूसरी पीढ़ी के जितने भी नाम सामने पैमाने पर देखे गए हैं। उनमें बस्तर की राजनीति को क्या फायदा पहुंच सकता है यह फैसला हमने बस्तरिया मतदाताओं के लिए छोड़ दिया है।
चर्चा में आज….
बलिदानी माटी कलश यात्रा में क्या कांग्रेस एकजुट दिखी?
सरकार की विकास यात्रा, कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा और बलिदानी माटी कलश यात्रा में भीड़ में चेहरे एक समान क्यों दिखे?
भाजपा के आतंरिक सर्वे की रिपोर्ट से बस्तर में कितनो की टिकट कटेगी?

माटी पुत्र को शत्—शत् प्रणाम


स्थान : जगदलपुर—कोंटा मार्ग पर स्थित जीरम घाट, समय : शाम के करीब साढ़े छह बजे, दिनांक : 25 मई 2013 हां यही तो वह काला दिन था जब बस्तर के वीर सपूत महेंद्र कर्मा समूचे बस्तर को हमेशा के लिए अलविदा कह गए। उनके गुजर जाने की तारीख उनके रक्त के बूंदों से लिखी गई। उनकी यह शहादत बस्तर की वादियों के लिए अजर—अमर हो चुका है। 

आज तीन माह बाद दंतेवाड़ा की पावन धरा में कांग्रेस अपने शहीद साथियों को श्रद्धांजलि देते शहीद माटी कलश यात्रा लेकर पहुंची है। यहां से इस यात्रा के चौथे चरण का आगाज किया जा रहा है। इस यात्रा की सुरक्षा को लेकर लगातार तैयारियों का दौर चल रहा है। इस बात का एहसास हो रहा है कि 25 मई को बस यही तो चूक हुई थी।  
26 मई की सुबह घाट पर बारिश और तूफान का नजारा साफ झलक रहा था। जो भी मौका—ए—वारदात पर पहुंचा तो देखा कि इधर—उधर बिखरी पड़ी लाशें देर शाम हुए दर्दनाक हादसे की सच्चाई को बयां कर रहीं थीं। वहां पड़ी लाशें केवल मौतों के आंकड़ों को आगे नहीं बढ़ा रहीं थीं बल्कि यह जता रही थी कि हम पर यह हमला कितना भारी था। यह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सीधा हमला था। यह हमला सत्ता की विफलता की कहानी को बयां कर रहा था। यह हमला सुरक्षा की गंभीर चूक को बयां कर रहा था। यह हमला प्रदेश के उस नेतृत्व को खत्म कर चुका था जिनके कंधों पर प्रदेश की बागडोर की उम्मीद बंधी थी। यह हमला परिवर्तन की उस आवाज पर किया गया था जिसके बूते सत्ता को सीधी चुनौती मिल रही थी।
बस्तरवासियों को गर्व है कि इस हमले में बस्तर टाइगर महेंद्र कर्मा ने अपने टाइगर होने का प्रमाण प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि युद्ध के मैदान में सीने में किस तरह से गोलियां खाई जाती हैं और वीरगति को प्राप्त किया जाता है। पीठ दिखाकर भगोड़ा बनकर कोई भी व्यक्ति समाज को सही राह नहीं दिखा सकता। अगर महेंद्र कर्मा चाहते तो वे अपनी सुरक्षा इंतजामों का उपयोग कर भाग सकते थे पर उन्होंने पीठ नहीं, सीना चुना। रत्नगर्भा बस्तर की माटी में जन्म लेने वाले महेंद्र कर्मा भी एक रत्न ही साबित हुए। जीरम घाट पर उनकी हत्या कर भले ही नक्सलियों ने माओवाद जिंदाबाद—महेंद्र कर्मा मुर्दाबाद के नारों से घाटी को गूंजित कर दिया हो पर वे अपने मोर्चे पर पराजित दिख रहे हैं। अपने मौत तक महेंद्र कर्मा ने उस चुनौती से हार मानने से इंकार कर दिया जिससे बड़ी—बड़ी सरकारें हार मानती दिख रही हैं।
इस हमले में वयोवृद्ध पं. विद्याचरण शुक्ल, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, राजनांदगांव के युवा व तेज तर्रार नेता उदय मुदलियार, पीसीसी अध्यक्ष के पुत्र दिनेश पटेल समेत कुल 31 लोगों की जान गई। इसमें नेता, सुरक्षा कर्मी और स्थानीय ग्रामीण भी शामिल थे। इन मौतों ने एक बात तो साफ कर दी है कि बस्तर में अब कोई सुरक्षित नहीं है। बस्तर में लोकतंत्र की मशाल लेकर पहुंचे इन नेताओं की हत्या के बाद यह तय हो गया है कि ये मौतें बस्तर में राजनीतिक व्यवस्था पर कुठाराघात की तरह हैं। तमाम विपरित परिस्थितियों के बावजूद बस्तर में परिवर्तन यात्रा लेकर पहुंचे कांग्रेसी नेताओं ने अपनी शहादत से बस्तर को एक संदेश दिया है कि यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लाल कुहासा को छाने ना दें। रही बात राजनीतिक आरोप प्रत्यारोपों की तो यह कहना कतई आसान नहीं है कि माओवादियों द्वारा घटित की गई इस घटना में साजिश जैसी कोई बात है या नहीं! बावजूद इसके सरकार इन मौतों के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार है। आखिर सरकार की ही जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने राज्य में हर व्यक्ति व संगठन को सुरक्षा की गारंटी दे। खैर बस्तर में जो कुछ हुआ यह देश के राजनीतिक इतिहास के काले दिन के रूप में ही पहचाना जाएगा। अपनी शहादत से बस्तर का नया इतिहास लिखने के लिए प्रेरित करने बस्तर माटी पुत्र को शत्—शत् प्रणाम…

आतंकवाद और नक्सलवाद से मजबूर गुलिस्तां हमारा


ईद का चांद दिख गया और आज पूरे देश में ईद की खुशियां बिखरी रहीं। तमाम मस्जिदों में ईद की नमाज शांतिपूर्ण तरीके से अदा हो पाए और यह पर्व मुस्लिम जमात के लिए शांति और खुशियों का संदेश लेकर पहुंचे। यह सरकार के साथ—साथ पूरे मुस्लिम जमात की चिंता का सबब रहा। आखिर 30 रोजे की इबादद के बाद ईद के रूप में रोजेदारों को अल्लाह का तोहफा मिला है। 

ईद से ठीक पहले भारतीय सीमा पर पाकिस्तानी फौज ने एक बार फिर दो देशों की संवेदनाओं को कुरेदने का काम किया है। पांच फौजियों की हत्या जिस तरीके से हुई वह इस देश की सुरक्षा को चिंता में डालने के लिए पर्याप्त है। चीन, पाकिस्तान की सीमा पर सेना तफरीह पर तो गई नहीं है। उसे पता है कि सीमा पार दुश्मन हैं। जिनसे देश की रक्षा करनी है और अपनी भी! बावजूद इसके दुश्मन सेना आती है और हमारे जांबाजों की हत्या को अंजाम देकर निकल जाती है। यह देश की सत्ता के लिए केवल चिंताजनक नहीं है ​बल्कि शर्मनाक भी है।
क्या वास्तव में सीमा पार से पाकिस्तानी सेना ने ही इस करतूत को अंजाम दिया है या यह आंतकवादियों की कोई चाल है? जैसी शंका हमारे देश के रक्षा मंत्री एके एंटनी साहब ने संसद में पहले फरमाया था, जिसे विपक्ष के साथ पूरे देश की जनभावनाओं के दबाव में उन्होंने 24 घंटे के भीतर बदल भी दिया। दोनो ही बातें सच हो सकती हैं। सवाल इन बातों के सच या झूठ का नहीं है बल्कि सवाल यह है कि आखिर बार—बार सीमा पर हो रही इस तरह की हरकतों को सरकार ने क्यों गंभीरता से नहीं लिया। 
मीडिया में सीमा पार से हो रही दखलअंदाजी की खबरें लंबे समय से सुर्खियों में हैं। चीनी सेना और पाकिस्तानी सेना की दखल को देश के लिए सीधा खतरा माना जाना ​चाहिए था। जो नहीं हो रहा है। दुश्मन देश की लगातार बढ़ती दखलअंदाजी से पूरा देश चिंतित है। जिसका जवाब देश की जनता चाहती है। सीमा पर देश की सुरक्षा का मामला हो या देश के भीतर आतंकवादी हमलों का… लगातार मिलती विफलता चिंता के सिवाए कुछ दे भी तो नहीं सकती। संवेदनलशील दोनों ही मामलों में सरकार के नि​​ष्क्रिय रूख को लेकर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रया का सम्मान होना ही चाहिए। पर जिस तरह से संसद के भीतर इस मसले पर चर्चा की जगह हो रहे हो हल्ले पर नजर जाती है तो लगता है कि मानों किसी को देश की सुरक्षा की चिंता ही नहीं है। हो हल्ले की जगह गंभीर चिंतन और निर्णय की दरकार है। देश की जनता यह नहीं चाहती है कि देश युद्ध का अंतिम विकल्प ही अपनाएं पर उसे जवाबी कार्रवाई चाहिए।
जो मामला सीमा पर दुश्मन देशों के साथ दिख रहा है कमोबेश वैसी ही स्थिति देश के भीतर हो रहे आतंकी हमलों को लेकर भी दिखाई दे रही है। देश के करीब नौ राज्यों में पसरते नक्सलवाद के मसले पर भी कोई स्पष्ट रूख नही होने का खामियाजा बढ़ता ही जा रहा है। नक्सल प्रभावित राज्यों में कोई सुधार की गुंजाईश दिखाई नहीं दे रही है। यह देश की आंतरिक सुरक्षा का गंभीर मामला है जिसे राष्ट्रपति ने अपने भाषण में स्पष्ट कर दिया है। देश के प्रधानमंत्री कई बार दोहरा चुके हैं। राजनैतिक दल भी इस तथ्य को महसूस कर रहे हैं। बावजूद इसके मैदानी तौर पर इससे निपटने के लिए कोई स्पष्ट रणनीति का नितांत अभाव दिखाई दे रहा है। यह राज्यों की समस्या है या केंद्र की जिम्मेदारी…। 
यह बहस का विषय नहीं है बल्कि इस तथ्य को स्वीकार करने की जरूरत है कि यह बिल्कुल वैसी ही ​समस्या है जैसी सीमा पार से दुश्मन देशों का हमला, देश के भीतर आतंकवादी हमले को हम मानते रहे हैं। क्या संसद की जिम्मेदार नहीं है कि वह इस तरह के तमाम नापाक इरादों से भरे हमलों को लेकर एक साझी रणनीति तैयार करे। देश की सीमाएं सुरक्षित नहीं हैं, देश के भीतर आम आदमी सुरक्षित नहीं हैं और देश की सत्ता सुरक्षित नहीं है और क्या चाहिए उस फैसले के लिए जो इस परिस्थिति से निपटने के लिए रास्ता तैयार करने को बाधित करे। आतंकवाद और नक्सलवाद से मजबूर होते इस गुलिस्तां को बचाने के लिए सरकार से हमारी बस यही तो मांग है।

फिक्र करें या फक्र समझ में नहीं आता…


बीते 25 मई को माओवादियों ने एक बड़े हमले को अंजाम देते हुए लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती पेश की। देश की सरकार और राजनीतिक पार्टी के नेता सभी चिंतित हुए। देश की मीडिया की नजर इस समस्या पर गहरी पड़ी। राष्ट्रीय न्यूज चैनलों में करीब एक हफ्ते तक इस हमले का असर दिखा। इस बीच हमले में शहीद हुए नेता और जवानों के साथ मारे गए कुछ बेगुनाह आम लोगों की अंत्येष्टि के बाद उनकी राख भी ठंडी हो गई। 


मुद्दा फिर मुद्दा बनकर रहने की कगार पर है। बड़ी बात यह है कि माओवादियों ने 25 मई के हमले के बाद जो दबाव बनाया है वह वास्तव में चिंताजनक है। अब वे डीएम को सीधे पत्र लिख रहे हैं लोगों के नाम गिना रहे हैं और बता रहे हैं कि उनका अगला टार्गेट क्या है? दूसरी ओर प्रदेश से लेकर देश की सरकारें चिंता जाहिर करने मेें जुटी है। प्रधानमंत्री लगातार अपनी चिंता जता रहे हैं। इन चिंताओं से निजात पाने के लिए दिल्ली में बैठकों का दौर चल रहा है। इसी दौर में सोमवार को सर्वदलीय बैठक हुई। इसमें भी प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने नक्सलवाद को लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा तो माना है पर कार्रवाई क्या करेंगे इस पर कोई खुला विचार सामने लाने से कतराते नजर आए। यह मसला केंद्र निपटाए या राज्यों के मत्थे मढ़े। जनता को तो बस शांति चाहिए। चाहे वह बैलेट से आए या बुलेट से…। बस्तर में हाल यह है कि दिवंगत कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा के 13वीं में शामिल होने में लोगों को दहशत का सामना करना पड़ा। ऐसे में उनका परिवार किसके भरोसे अब फरसपाल में डेरा डाले रखे? रही बात सुरक्षा की तो यह बता दूं कि महेंद्र कर्मा की हत्या के बाद नक्सलियों ने दंतेवाड़ा और बीजापुर जिले को जोडऩे वाली फरसपाल-पांडेमुर्गा मार्ग पर दीवार खड़ी कर दी है। जिसे हटाने में सुरक्षा बलों का पसीना छूट रहा है। ऐसे में माओवादियों से सीधी लड़ाई और चुनौती देने का ढंग ही बेमानी लग रहा है।
खैर, सवाल बैठकों का है तो बता दें कि छत्तीसगढ़ सरकार ने करीब पांच बरस पहले नक्सल मुद्दे पर छत्तीसगढ़ विधान सभा में क्लोज डोर बैठक करवा चुकी है। इस बैठक में सभी 90 विधायकों ने अपनी चिंता जताई। खुलकर अपनी बातें रखीं। निर्णय हुए। नीतिगत निर्णय के आधार पर बैठकों का मजमून किसी के पास नहीं पहुंच सका। सो चिंता में क्या बातें रखीं गई और उन बातों पर अमल करने के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए? यह कभी भी स्पष्ट नहीं हो सका। ऐसा माना जा रहा है कि बैठक के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने केंद्र से माओवाद से निपटने के लिए विकास राशि बढ़ाने व सुरक्षा बलों को बढ़ाने की मांग रखी। अब केंद्र ने उनकी मांगों का मंजूर किया या नामंजूर यह पता नहीं चल सका। पर इतना पता है कि पांच सालों में प्रदेश में सुरक्षा बलों की बटालियन 20 से बढ़कर 30 हो चुकी है। दरभा हमले के बाद दो और बटालियन देने की घोषणा केंद्रीय गृहमंत्री ने की है। यानि, अब 32 हजार जवान माओवाद से निपटने के लिए प्रदेश के पास उपलब्ध होंगे। इन जवानों का पहले किस तरह से उपयोग किया गया और अब क्या उपयोग होगा? यह भी कोई नहीं जानता। रही बात विकास के लिए धन की तो कितनी राशि केंद्र ने दी और राज्य सरकार ने राशि से कितना विकास किया? यह भी कोई नहीं बता सकता। क्यों कि यह भी आंकड़ों में बहस का विषय है। 
मेरे यह कहने का मतलब यह है कि हर बार नक्सली हमले के बाद बड़ी बहस होती है, चर्चा होती है, चिंता होती है। फिक्र और फक्र का दौर चलता है। बावजूद इसके परिस्थितियों में बदलाव आना तो दूर, इसके संकेत तक नहीं मिलते। छत्तीसगढ़ बनने के बाद तेजी से विकास का सपना छत्तीसगढिय़ों ने देखा। चुनिंदा शहरी क्षेत्रों में निर्माण से यह दिख रहा है और ग्रामीण क्षेत्र नई समस्याओं से घिरे दिख रहे हैं। आज भी प्रदेश के बड़े ग्रामीण हिस्से में पीने के पानी, बिजली और स्वास्थ्य की समस्या आम है। नए प्रदेश में जिलों की संख्या 18 से 28 हो गई। राज्य सरकार द्वारा फक्र से बताने के लिए यानि प्रशासन आम आदमी के और भी करीब। पर फिक्र की बात यह है कि केंद्र को भेजने वाली रिपोर्ट में पहले 18 जिले नक्सल प्रभावित थे अब 28 हो गए हैं। 
हमले दर हमले, बारुदी विस्फोट, नक्सलियों की एंबुश के शिकार, माओवादियों का सीधा अटैक, रात को ब्लास्ट, दिन में फायरिंग, बाजार में फायरिंग, थाने में फायरिंग, दिन दहाड़े हत्या… और न जाने कितने तरीके। सभी का अंत मौत के आंकड़ों को बढ़ाता दिखता है। सरकार का हर नक्सली हमले के बाद एक ही जवाब सुन-सुन कर लोग उकता गए हैं। सच्चाई तो यह है कि अब लोगों को जवाब नहीं बल्कि जवाबी कार्रवाई चाहिए। यह समझना जरूरी है कि थोथे भाषणों और बयानबाजी ने नक्सलवाद का खात्मा नहीं होने वाला। यह स्पष्ट है कि नक्सली सत्ता चाहते हैं वे इस क्षेत्र की आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं। इसके जवाब में यहां के लोग हर पांच बरस में मतदान कर रहे हैं और लोकतंत्र के प्रति अपनी आस्था बचाए हुए हैं। इस जनता की दरकार नक्सलियों को भी उतनी ही है जितना लोकतांत्रिक व परंपरागत राजनीतिक व्यवस्था को संचालित करने के लिए जरूरी है। अगर इस विरोधाभाष को दूर करने के लिए सरकारें सीधी मेहनत करने से कतराएंगी, इसके निदान के रास्ते ढंूढने में केवल राजनीतिक फिक्र और फक्र का खेल खेलती रहेंगी तो कुछ भी नहीं होने वाला। बस्तर बारुद के ढेर पर बैठा है। विकास के रास्ते बंद होते दिख रहे हैं। यहां से निकलने वाली आवाजें माओवादी हमले का शिकार हो गई हैं। राजनीतिक योद्धा बलिराम कश्यप उम्र और बीमारी के शिकार हुए और महेेंद्र कर्मा को सरकार सुरक्षा नहीं दे पायी। एनएच 30 के जीरम घाट में नक्सली माओवाद जिंदाबाद के नारे लगाकर जंगल में फिर लौट गए हैं। उनकी आवाजें यहां की फिजां में गूंज रही हैं और आम लोगों के दहशत की फिक्र के जवाब में दिल्ली से रायपुर तक बैठकों का दौर और नेताओं के घुमावदार भाषणों पर चमचों का फक्र… चिंतनीय है।

आखिर कांग्रेस की अस्वीकार्यता की वजह क्या है? एक्जिट पोल के बाद दिखते हालात…

सुरेश महापात्र. लगातार दस बरस तक केंद्र की सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस के जो दुर्दिन 2014 में शुरू हुए थे उसका अंत फिलहाल नहीं है। सि...