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Wednesday, May 22, 2019

आखिर कांग्रेस की अस्वीकार्यता की वजह क्या है? एक्जिट पोल के बाद दिखते हालात…

सुरेश महापात्र.
लगातार दस बरस तक केंद्र की सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस के जो दुर्दिन 2014 में शुरू हुए थे उसका अंत फिलहाल नहीं है। सिमटते-सिमटते कांग्रेस अब उसी बेल्ट पर शेष है जहां उसे किसी क्षेत्रीय राजनीतिक दल की चुनौती नहीं मिल रही है। 
यानी जिस भी राज्य में किसी क्षेत्रीय राजनैतिक दल की जड़ें गहरी हुईं वहां से कांग्रेस बाहर हो चुकी है। 2019 के चुनाव पश्चात एक्जिट पोल सर्वे तो कम से कम यही बयां करते नजर आ रहे हैं। वैसे भी कांग्रेस से कोई भारी भरकम उम्मीद तो थी ही नहीं। 
बस यही लग रहा था कि राष्ट्रीय स्तर पर किसी मुद्दे पर जब बात होगी तो कांग्रेस के साथ एक गठबंधन खड़ा होगा जिसे विकल्प माना जा सकेगा। पर ऐसा हुआ हो दिख नहीं रहा है।
2019 के चुनाव में कांग्रेस जब मैदान में थी तो उसके सामने हाल ही में तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान के चुनाव परिणाम से मिली सकारात्मकता सामने थी। यह उर्जा का संचार कर सकती थी पर नहीं कर पाई।
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, हरियाणा, नार्थ ईस्ट व जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस की स्थिति नाजुक ही बनी हुई है। दक्षिण भारत के अलावा यह वह बेल्ट है जहां भाजपा ने रणनीतिक तौर पर खुद को बेहद मजबूत किया है। वहीं कांग्रेस की सभी रणनीति विफल होती दिख रही है।
यह बड़ा विषय है कि आखिर कांग्रेस के प्रति यह अविश्वास का कारण क्या है? क्या कांग्रेस को लेकर आम लोगों के मन में अब किसी प्रकार का संदेह नहीं रहा? या कांग्रेस का नेतृत्व ही अक्षम है? ये दो बेहद महत्वपूर्ण सवाल हैं। जिसका जवाब ढूंढना कांग्रेस संगठन की जिम्मेदारी है।
पहली बात तो यह है कि बीते पांच बरस में केंद्र की मोदी सरकार को लेकर कांग्रेस का रवैया अफेसिंव ना होकर डिफेंसिव ही रहा। कांग्रेस ने चुनाव से दो बरस पहले तक केवल यही प्रयास किया कि किसी तरह से वह राहुल गांधी को पार्टी की कमान सौंपने लायक साबित कर दे। 
इसी राहुल गांधी पर 2014 के समय से भाजपा लगातार हमले करती नजर आ रही थी। जब प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह रहे और यूपीए चेयरपर्सन की भूमिका में सोनिया गांधी राजनीति के केंद्र में रहीं। बावजूद इसके राहुल गांधी को अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए जो भी जोड़ तोड़ करना पड़ा वह जगजाहिर रहा।
आखिरकार 2017 में राहुल गांधी की ताजपोशी के लिए कांग्रेस के बड़े नेताओं की सहमति मिली तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कांग्रेस को परिवार की पार्टी का तमगा मिलने के बाद आम जनमानस में जो धारणा बनी है उसका तोड़ फिलहाल मिलता नहीं दिख रहा है। इसके लिए कांग्रेस को या तो अपनी कार्यशैली को बदलने की जरूरत होगी जिसमें निर्णायक भूमिका में गांधी परिवार ना हो। पर ऐसा कतई संभव नहीं है। 
भाजपा, कांग्रेस की इसी कमजोरी पर लगातार हमले कर रही है। वह चाहती है कि पहले गांधी परिवार के हाथ से कांग्रेस बाहर तो निकले। उसका अनुमान है जैसे ही यह मकसद पूरा होगा। कांग्रेस बिखर जाएगी और भाजपा का दूसरा राष्ट्रीय विकल्प हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा। 
इससे भाजपा को अगले कम से कम दो दशक तक एक क्षत्र राजनीति का पूरा अवसर मिलेगा। जिसमें वह अपने उन सभी एजेंडा पर काम कर पाएगी जिसके लिए उसका गठन किया गया है।
पर इससे बड़ी बात तो यह है कि कांग्रेस अपने विरोधी के इस मंतव्य को ना समझ रही हो यह माना ही नहीं जा सकता। यदि कांग्रेस के सभी आला नेता इस बात को समझ रहे हैं तो वे कांग्रेस को मजबूत करने के लिए सही कदम उठाने से क्यों हिचक रहे हैं। 
क्या वास्तव में गांधी परिवार ऐसे किसी विकल्प को आगे बढ़ने से रोक रहा है जिसमें राष्ट्रीय नेतृत्व को क्षमता हो। या कांग्रेस के भीतर ही खेमेबाजी हो रही है जिसमें सारे धड़े अपने व्यापक हित के लिए राष्ट्रीय नेतृत्व को चुनौती देने से बच रहे हैं।
मेरी समझ से यह सबसे बड़ा अवसर था जब कांग्रेस पांच साल तक जमीनी मेहनत कर स्वयं को बेहतर विकल्प साबित कर सकती थी। पर ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस ने संसद से लेकर सड़क तक केवल वही राजनीति की जिससे वह खुद को बचता हुआ दिखा सके। संसद में सवाल उठे तो भी उसे आम मतदाता तक पहुंचाने में वह कामयाब नहीं हो पाई।
बड़ी बात तो यह है कि 2016 में विमुद्रीकरण को लेकर आम जनमानस में नकारात्मक धारणा है। ठीक एक बरस बाद 2017 में जीएसटी को लेकर भी कमोबेश यही स्थिति है। पर इसे अपने पक्ष में माहौल बनाने में कांग्रेस पूरी तरह विफल रही। वह आम जनता को इस समस्या के बाद उपजे आर्थिक हालात का विकल्प सही मायने में देने में असमर्थ रही।
इसके उलट सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने इन दो मोर्चा में विफलता के बावजूद स्वयं को इसके नकारात्मक प्रभाव से बचा लिया। कांग्रेस के द्वारा राफेल मामले में जो भी स्टैंड लिया गया उसमें कांग्रेस को विपक्ष का साथ मिला ही नहीं। राजनीति तो यही कहती है कि आपकी सफलता या विफलता इस बात पर है कि आप मुद्दा खत्म करते हैं या मुद्दा उठाने वाले को…। 
कांग्रेस सीधे तौर पर ना तो सुप्रीम कोर्ट पहुंची और ना ही कोई ऐसा सीधा प्रमाण अपने दम पर प्रस्तुत किया जिसे सत्ता कोर्ट में चुनौती दे सके। इसके उलट भाजपा ने बोफोर्स के तोप का मुंह उलटे कांग्रेस की ओर मोड़ दिया। भ्रष्टाचार के लिए बदनाम कांग्रेस इस मामले में लाख सफाई दे पर वह लोगों का विश्वास जीतने में कामयाब नहीं हो पाई।
पुलवामा हमले के बाद कांग्रेस की भूमिका को देखें तो एक बार फिर वही स्थिति थी कांग्रेस भले ही यह बोलती रही कि हमले में जो बारुद पहुंचा वह सत्ता की कमजोरी का परिणाम था पर वह इस मामले में पाकिस्तान के बहाने मोदी सरकार को नहीं घेर पाने में बड़ी चूक कर बैठी। इसके उलट नरेंद्र मोदी ने बालाकोट आतंकी कैंप पर एयर स्ट्राइक को अपना अचूक हथियार बना लिया। 
जब कांग्रेस से देश को उम्मीद थी कि वह पुलवामा को लेकर सीधे पाकिस्तान पर आरोप मढ़े और सरकार पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाए वहीं उसके नेताओं के मत बंटे हुए दिखे। यदि ऐसा होता तो कांग्रेस के खिलाफ भाजपा का एंटी नेशनल एजेंडा नहीं चल पाता। भाजपा चाह ही रही थी कि कांग्रेस दूसरे मुद्दे पर उलझे और उसे फंसा दिया जाए।
पुलवामा हमले के बाद भाजपा के पास सारे मुद्दे गौंण हो गए। उसके पास सबसे बड़ा ​हथियार राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर मौजूद था। जिसका बखूबी लाभ वह नहीं भी उठाती तो कांग्रेस ने उसे पूरा मौका जरूर दिया। इसके पीछे बड़ी वजह यह हो गई कि कांग्रेस के भीतरखाने में इस बात को लेकर माथा पच्ची चलती रही कि वह राफेल को लेकर भाजपा को घेरे या पुलवामा को लेकर ​सरकार ​की विफलता का राग आलापे…
कांग्रेस मानें या ना मानें पर वह पुलवामा हमले के बाद भाजपा के जाल में इस कदर फंस गई कि उसके राफेल के मुद्दे के बाद उठाए गए जुमले ‘चौकीदार चोर है…’ का बुरा प्रभाव पड़ना शुरू हो गया। भाजपा चाहती ही थी कि कांग्रेस इस स्लोगन से बाहर ना निकल सके। क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे के बाद यह स्लोगन उल्टा पड़ना स्वाभाविक था।
खैर इन बातों पर तो आगे भी चर्चा होती रहेगी ही। बड़ी बात यह है कि पांच साल तक कांग्रेस ने केंद्र सरकार के खिलाफ कोई ऐसा आंदोलन खड़ा करने में पूरी तरह असमर्थ रही जिससे आम लोगों को लगे कि कांग्रेस का ऐजेंडा बदल चुका है। वह अब जनहित को लेकर सीधी लड़ाई लड़ने की स्थिति में आ खड़ी हुई है। कांग्रेस ने बार—बार यही जताया कि उसे केवल राहुल गांधी की ताजपोशी से ही मतलब है। जैसे ही यह होगा बाकि सब काम कर लिया जाएगा।
बेहतर होता कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पार्टी की कमान छोड़तीं और किसी दूसरे वरिष्ठ नेता को पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी जाती। उस अध्यक्ष को स्वतंत्र तौर पर काम करने के अवसर देने के बाद यदि राहुल गांधी को जिम्मेदारी मिलती तो यह ज्यादा स्वीकार्य होता। कांग्रेस को यह दिखाने की जरूरत थी कि वह बदल रही है। उसके विचार बदल रहे हैं। उसके काम करने की शैली बदल रही है। 
ऐसा नहीं है कि हिंदुस्तान के लोग लोकतंत्र और तानाशाही में अंतर नहीं समझते। वे बेहतर समझते हैं। यदि कांग्रेस किसी दूसरे के लिए अध्यक्ष पद का दरवाजा खोलती तो उस पर राहुल की ताजपोशी के लिए इंतजार का आरोप भी काफी हद तक खत्म हो जाता। भाजपा के मूल एजेंडा में ही कांग्रेस के शीर्ष नेता रहे हैं। वह जमीनी राजनीति से यहां तक पहुंची है। 
इसके उलट कांग्रेस का जमीन से नाता लगातार टूटता चला गया। उसके नेता दिखावे की राजनीति में ज्यादा विश्वास करते चले गए। जनहित के मुद्दे पर मौलिकता का अभाव कांग्रेस को खत्म करता चला गया। कांग्रेस की तरकश के सारे तीर भोथरे हो चुके हैं। उसे नए सिरे से अपनी दशा और दिशा के बारे में सोचने की जरूरत है।
राहुल चुनाव के अंतिम चरण में पहुंचने के बाद जिस तरह से मीडिया से बात करते नजर आए यदि यह प्रथम चरण के पहले से शुरू कर दिया होता तो परिणाम में थोड़ा परिवर्तन संभव था। प्रचार माध्यमों को लेकर कांग्रेस केवल मीडिया पर आरोप मढ़ते रह गई इसके उलट बिना किसी की परवाह किए भाजपा ने विपक्ष को घेरने में कोई कसर नहीं रख छोड़ा।
यह पहला अवसर है जब आजाद हिंदुस्तान में 2019 के चुनावों के दौरान विपक्ष निशाने पर रहा और सत्ता घायल विपक्ष के घावों पर मि​र्ची डालता रहा। सुलगते विपक्ष को देखकर आम जनता में खुशी झलकती रही और सत्ता मदमस्त होकर अपना काम करता रहा।
यदि सही मायने में देखा जाए तो पूरे पांच साल तक केवल दिखावे की राजनीति हुई। सरकार ने अपनी विफलता को भी विपक्ष की कमजोरी की आड़ में छिपा लिया। आर्थिक मोर्चे पर लोगों को परेशानी के बावजूद देश हित के लिए सत्ता के पक्ष में खड़ा होना ज्यादा आवश्यक लगा।
कांग्रेस को बदलना होगा। नहीं तो कांग्रेस ही खत्म हो जाएगी। कांग्रेस को पूरे सिरे से विचार करना होगा कि वह अगले पांच बरस तक केवल और केवल जनहित के मुद्दे को लेकर संघर्ष करे। कांग्रेस यह मान ले कि बीते 2014 के चुनाव में जिस जनता ने उससे विपक्ष के नेता के पद तक की गरिमा छिन ली थी उसे वापस लौटा दी है। विपक्ष की मजबूती के साथ अगले पांच साल तक कांग्रेस जमीन पर मेहनत करे और राज्यों में अपने संगठन को जनता के विश्वास के लायक बनाए तभी 2024 में सत्ता के सपने देखे… नहीं तो भाजपा अभी ​उतनी बुरी नहीं दिख रही है।

अंडरगारमेंट दिखाती मीडिया और लोकसभा में चुनावी आचार संहिता…

सुरेश महापात्र.
लोकसभा चुनाव 2019 के मतदान के चार चरण पूरे हो चुके हैं और केवल तीन चरणों का मतदान शेष है। इक्कसवीं सदी के इस महत्वपूर्ण पड़ाव में लोकसभा के निर्वाचन की प्रक्रिया संपन्न हो रही है। इस सदी का यह चौथा लोकसभा चुनाव है। 
जिसमें सबसे ज्यादा विवाद नेताओं की भाषा और प्रचार के स्तर को लेकर हो रहा है। इस चुनाव में मीडिया की भूमिका को लेकर यह स्पष्ट धारणा बन चुकी है कि मीडिया भी इस राजनैतिक दौर में अपनी लड़ाई सीधे लड़ रहा है।
मीडिया में वर्ग भेद और मनभेद का स्तर अब किसी से भी छिपा नहीं है। इलेक्ट्रानिक न्यूज चैनलों में सीधे—सीधे चैनलों का नाम लेकर आरोप ऐसे लगाए जा रहे हैं जैसे मीडिया संस्थान ही चुनावी मैदान में सीधे उतरे हुए हों।
पत्रकारिता निम्नतम् स्तर तक पहुंच चुकी है। भले ही मीडिया का एक तबका अभी इस बात को लेकर हल्ला कर रहा है कि मीडिया में अभिव्यक्ति की आज़ादी को खतरा मंडरा रहा है। इसमें बाधाएं पहुंचाई जा रही हैं। पर इसके इतर बहुत कुछ है जो सीधे अखबार के पाठक और न्यूज चैनलों के दर्शक समझ रहे हैं।
चुनावी आचार संहिता को लेकर 16वें आमचुनाव में सबसे ज्यादा सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हो रही है। अब तक करीब तीन दर्जन मामलों की सुनवाई और पुनर्विचार की अपील दाखिल की जा चुकी हैं।
अभी भी करीब दर्जनभर मामले सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग हैं। जिस पर आने वाले दिनों में सुनवाई होगी। आखिर ऐसा क्या है जिसके चलते आम चुनाव में यह नौबत आन पड़ी।
इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है राजनैतिक दलों द्वारा अपने पक्ष में महौल बनाने का इस चुनाव में जिस तरह से प्रयास किया गया वह अभूतपूर्व है। बीते लोकसभा चुनाव में जब हिंदुस्तान की आवाम को 15 वीं लोकसभा के लिए सरकार चुनना था तब पूरे देश में वातावरण यूपीए 2 सरकार के विरुद्ध था। कांग्रेस पर लाखों करोड़ के भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। निर्भयाकांड के बाद पूरे देश में सत्ता के विरुद्ध जबरदस्त आक्रोश था।
इसी के साए में चुनाव से पहले ही एक प्रकार से विपक्ष के पक्ष में हवा बन चुकी थी। बस इस हवा को एक चेहरा देने का काम था जिसे भाजपा ने नरेंद्र मोदी को सामने कर पूरा कर दिया। 
2014 में चुनाव से पहले जनता के मन में अगली सरकार को लेकर एक बड़ी तस्वीर थी। जिसमें बहुत कुछ बदलने का इंतजाम साफ दिख रहा था। देश में बने भ्रष्टाचार और देश के बाहर जमा कालाधन को लेकर बड़ा सवाल खड़ा था। बेरोजगारी से बेजार युवाओं के लिए रोजगार, महंगाई से परेशान परिवारों के लिए कीमतों में नियंत्रण, पेट्रोलियम पदार्थ की कीमतों में इजाफा के साथ देश की आतंरिक सुरक्षा और बाह्य सुरक्षा भी एक बड़ा विषय रहा।
मीडिया को तब अपनी तरफ से कुछ भी करने की जरूरत नहीं थी। बस हवा के साथ बह जाने की राह थी। यह हवा ना बदले और मतदान तक देश के भीतर कांग्रेस अपने प्रति किसी प्रकार का सुरक्षा कवच ना बना सके बस इतना ही विपक्ष की जिम्मेदा​री थी। जिसे मीडिया के माध्यम से किया जाना था। जिसमें कोई ​अतिरिक्त समस्या भी नहीं थी।
नरेंद्र मोदी अपने गुजरात माडल को लेकर सामने थे। सभी को लग रहा था कि जिस तरह से गुजरात में व्यापार की स्थिति है वही स्थिति पूरे देश में निर्मित होने वाली है। लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी ने यह तो साफ कर दिया था कि 2002 के गुजरात दंगों से भाजपा काफी आगे निकल चुकी है। 
वह एक पूर्ण व मजबूत सरकार देने की स्थिति में है। इसी दौर में सीएजी विनोद राय के कैल्कुलेशन ने 2जी घोटाले की एक नई लकीर खींच दी। कामनवेल्थ गेम्स, कोयला घोटाले  को लेकर कठघरे में खड़ी यूपीए के सामने यह विकल्प भी नहीं बचा था कि वह हवा का रूख बदल दे।
सुप्रीम कोर्ट, सीएजी, ईडी, चुनाव आयोग से लेकर सभी केंद्रीय विभाग इस बात को समझ चुके थे कि 10 साल तक सरकार चलाने वाली यूपीए के लिए आने वाले दिन अच्छे नहीं हैं क्योंकि विपक्ष में भाजपा ने जो स्लोगन जारी किया ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ वह चल निकला था।
अन्ना हजारे का लोकपाल की नियुक्ति को लेकर भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन व आंदोलन, बाबा रामदेव का कालाधन के खिलाफ प्रदर्शन और अनशन पूरे देश का वातावरण बदल चुका था। कांग्रेसी भी यही समझने लगे थे कि कांग्रेस के भीतर की निरंकुशता चरम पर है। यही वजह है पूरे देश में बदलाव को लेकर बड़ी हवा बनी। इसलिए 2014 के चुनाव के दौरान राजनैतिक मंचों पर जो भाषण दिए गए वे कहीं से स्तरहीन नहीं थे। वे पूर्णतौर पर राजनैतिक कसौटी में खरे थे।
पर 2019 के चुनाव के समय तक बहुत कुछ बदल चुका है। देश के भीतर ना तो किसी के खिलाफ बड़ी लहर है और ना ही किसी के पक्ष में… लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्रवाई और कार्यशैली को लेकर काफी पाजिटिव हैं। वहीं 2014 में कांग्रेस के खिलाफ जिस तरह का एक तरफा लहर था वह पूरी तरह से गायब है। 
बीते पांच साल तक कांग्रेस अपने सबसे निचले स्तर 44 सदस्यों के साथ संसद में रही। ​उसके पास विपक्ष के नेता जितनी ताकत भी नहीं बची। पर भाजपा के सदस्यों की संख्या पूर्ण बहुमत से बहुत ज्यादा 282 रही। 
एनडीए के तौर पर भाजपा के पास बड़ा समर्थन साफ था। लोगों की उम्मीदें थीं और सवाल थे। जिनमें 2014 में किए गए वादे सत्ता को सबसे ज्यादा चुभ रहे हैं। वे नहीं चाहते कि 2014 के मुद्दों पर ही दुबारा चुनाव हो। एक प्रकार से सत्ता का संघर्ष ही इस बात को लेकर है कि 2019 में गोलपोस्ट बदला जाए।
सत्ता के गोलपोस्ट बदलने की कवायद में सबसे बड़ा कारक मीडिया है। मीडिया के माध्यम से जनता के बीच मुद्दों को बदलने की तो कोशिश हो रही है वही अब सभी के सामने दिख रहा है। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी जैसे राजनैतिक दलों का खत्म हुए जैसा परिणाम उन्हें सता रहा है। यही वजह है उनकी जुबानी स्तर भी निम्न हो चुकी है। भाजपा प्रत्याशी जयाप्रदा को लेकर सपा प्रत्याशी आजम खान की टिप्पणी भारतीय लोकतंत्र में प्रचार के गिरते स्तर का प्रमाण है। वे चाहते हैं कि मीडिया में बने रहकर माहौल को बदलने में बड़ी भूमिका निभाएं। 
इस बीच 2014 से 2019 के बीच बहुत कुछ घटा है जिसमें कहीं कांग्रेस को साख हासिल हुई तो भाजपा को चुनौती ​मिली। यही वह कारण है कि 2019 में भाजपा जोखिम लेने के मूंड में तो कतई नहीं है। पर सबसे रोचक बात तो यह है कि 2014 में जैसे साफ लग रहा था कि सीबीआई, ईडी, चुनाव आयोग, सीएजी, सीवीसी आदि संस्थाओं में सरकार के फैसलों के खिलाफ खड़े होने की आजादी थी वह आज़ादी 2019 के आते—आते खत्म होती दिख रही है। इससे जुड़ी कई घटना देश के सामने हैं।
यानि पूरे देश में जो माहौल है वह सत्तर बरस में पहली बार बिल्कुल अलग तरह का है। इस माहौल में सबसे बड़ी बात यह दिख रही है कि देश के मीडिया घराने ही बंटे हुए दिख रहे हैं। मीडिया कभी इतनी अविश्वसनीय नहीं रही।
2014 के चुनाव के पूर्व भाजपा ने आईटी सेल गठित कर जनमानस की मानसिकता को स्थाई तौर पर बदलने में बड़ी भूमिका निभाई थी। यह 2019 के आते—आते कांग्रेस का भी हथियार बन चुका है। अब दोनों बड़ी पार्टियों की ओर से आईटी सेल के लोग परोक्ष तौर पर मानसिकता को प्रभावित कर रहे हैं। 
इसमें ज्यादा नुकसान में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा है। क्योंकि कांग्रेस के आईटी सेल से 2014 हके पूर्व के सारे विडियो शेयर कर सवाल की फेहरिस्त खड़ी की जा रही है। जिसके जवाब में भाजपा आईटी सेल 2014 से पहले बनाई गई वही पुरानी क्लिपिंग को चला रही है।
यह बताने का आशय यह है कि आज के चुनाव में जिस तरह से मुद्दों से परे जाने की कवायद हो रही है उसमें मीडिया सबसे बड़ा हथियार बना है। चैनलों में एंकरों को लेकर आपस में लड़ते कभी देखा नहीं गया। वे एक—दूसरे के खिलाफ बातें कर रहे हैं। यानी मीडिया पूरी तरह से बिखरी हुई है। 
चुनाव आयोग में जिस तरह से शिकायतों को अंबार है और उसके निपटारे को लेकर सवाल उठ रहे हैं यह भी चिंता के स्तर को छू चुका है। लग रहा है कि आयोग ने अब ठान लिया है कि राजनैतिक पार्टी जिन्हें जो करना हैं करें वह किसी बड़े नेता पर कार्रवाई नहीं करेगा। 
चाहे राहुल गांधी भाजपा के अध्यक्ष को हत्या को आरोपी बता दें या नरेंद्र मोदी सेना, सर्जिकल स्ट्राइक को मुद्दे को छोड़ने के लिए तैयार ना हों। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर आयोग को शिकायतों को निपटारा करना यह साफ बता रहा है कि अंदरखाने में असहजता बहुत ज्यादा है।
एक बात और कि आम जनमानस इसके बाद भी चुप्पी साधकर बैठा है यही सत्तारूढ़ पार्टी के लिए सबसे बड़ी चिंता है। इस चिंता से निपटने का एक मात्र तरीका मीडिया का बेहतर और ज्यादा अच्छा प्रयोग किस तरह से किया जाए इसके लिए नए—नए अवसर बनाए जा रहे हैं। यह भी अभूतपूर्व है। अक्षय कुमार का नान पालिटिकल इंटरव्यू कई सवालों को खड़ा करता है। इसी तरह से पीएम रहते जो नई लकीर नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार की खींच रहे हैं उसका असर आने वाले चुनावों में भी देखने को मिलेगा।
एक बड़ी बात है जहां से हम शुरू हुए वह यह कि इस चुनाव में परिणाम चाहे जो आए मीडिया का अंडरगारमेंट साफ दिखने लगा है। यह उसके नैतिक और चारित्रिक पतन का नया स्तर है। चैनलों में एंकर पार्टी के प्रवक्ताओं की तरह का व्यवहार कर रहे हैं। कोई बेदाग नहीं है। 
किसी को केवल सत्ता में खामी दिख रही है तो कोई केवल विपक्ष के विरूद्ध खबरें परोसकर स्वयं को बेहतर दिखाने की कोशिश में जुटा है। यह बात समझना चाहिए कि विपक्ष का काम ही है सत्ता के विरूद्ध सवाल खड़ा करना। विपक्ष से सवाल करते हुए उसे राष्ट्रद्रोही तक साबित करना मीडिया का काम कैसे हो सकता है। इसे तय करने के लिए सरकार और उसका अपना कानून है। 
2014 से पहले जिस मीडिया के कव्हरेज ने आम मतदाताओं का दिल जीत लिया था वे अब संदेह के घेरे में क्यों खड़े हैं? यह चिंतन मीडिया को करना है। सरकारें तो आएंगी, जाएंगी… पर मीडिया को अपना काम करते रहना होगा… क्योंकि सत्ता का चरित्र कभी नहीं बदलता यह सच है। मीडिया को भी अपना चरित्र संभाल कर रखना चाहिए।

कहीं दूसरे अंडर करंट के शिकार तो नहीं होंगे भूपेश बाबू…!!

सुरेश महापात्र.
राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है। क्योंकि फैसला नेता नहीं, जनता करती है। जनता ने बीते 70 बरसों में जब चाहा तब सत्ता का तख्ता पलट दिया। छत्तीसगढ़ बनने के बाद यहां पहली बार इतना बड़ा परिवर्तन जनता ने ही किया है। जनता तब परिवर्तन का बिगुल फूंकती है जब उसे लगने लगता है कि सत्ता में बैठे लोग जनहित से खुद को अलग करने लगते हैं।
इसी जनता ने भारी मोदी लहर में हुए 2018 के विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ ने कांग्रेस को उसकी उम्मीद से ज्यादा 68 सीटें दी हैं। यह जीत काम करने के लिए हैं। ठीक है जिन मुद्दों पर आप पूर्ववर्ती सरकार की आलोचना करते थे उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता भले ही लोग इसे ‘बदलापुर की राजनीति’ कहें…। छत्तीसगढ़ की राजनीति में इन दिनों भूपेश बाबू आपकी ही चर्चा है। आपकी विपक्ष के प्रति तल्खी और बेबाक टिप्पणी लोगों को भा भी रही है। लग रहा है कि कोई तो है, जो उन्हें जवाब दे रहा है जो सत्ता में रहते सुनना बंद कर चुके थे।
यह अलग बात है। मेरी चिंता इससे इतर है। दिसंबर में छत्तीसगढ़ में आपकी सरकार काबिज हुई और करीब पांच महिने का वक्त बीत चुका है। आपने ‘गढ़बो नवा छत्तीसगढ़’ का नारा दिया है। यह सही भी है कि करीब डेढ़ दशक तक एक ही पार्टी की सरकार होने के बाद आपका विज़न एक नए छत्तीसगढ़ के लिए है।
इस नए छत्तीसगढ़ में कौन शामिल होगा और कौन नहीं? यह बड़ा सवाल है। इससे पहले इस सवाल पर पहुंचें मैं आपको बताना चाहूंगा मेरी आपसे पहली मुलाकात तब हुई थी जब आप बस्तर के नेता महेंद्र कर्मा के साथ भैरमगढ़ इलाके के बर्रेपारा में ब्लास्ट में जवानों की शहादत के बाद फोर्स की ज्यादतियों की शिकायत पर राजनीति करने पहुंचे थे।
यह 2004—05 की बात है। वहां ग्रामीण आदिवासी महिलाओं के साथ पत्थर पर बैठकर उनसे बात करते और वस्तुस्थिति को जानने की कोशिश की थी। मैं आपके करीब ही खड़ा था तब एक दैनिक समाचार पत्र के लिए बतौर संवाददाता आपको कव्हर कर रहा था। मुझे आपका सहज तरीके से बैठकर ग्रामीणों के साथ बात करना अच्छा लगा था। फिर बात आई गई हो गई।
कुल मिलाकर आपकी जमीनी मेहनत और परिश्रम का नतीजा है आप अब सत्ता के शीर्ष पर हैं। पर सत्ता में पहुंचने के बाद बहुत से लोगों का रंग और ढंग बदल जाता है। आपका भी बदला होगा, नहीं बदला है तो निश्चित तौर पर बदल जाएगा! क्योंकि ‘सत्ता’ अपने विरूद्ध संवाद करना पसंद नहीं करती है। ‘सत्ता’ को यह गुमान होता है कि वह हमेशा निष्पक्ष और सही होता है। पर ऐसा होता नहीं है। यह मैनें हमेशा देखा है।
भूपेश बाबू, आप यह मान रहे हैं कि विधानसभा चुनाव की तरह छत्तीसगढ़ में एक बार फिर कांग्रेस को जबरदस्त समर्थन मिलेगा तो आप वही गलती कर रहे हैं जो डा. रमन ने किया। वे जमीनी हकीकत को भांपने में असमर्थ रहे। आपके सामर्थ्य पर भरोसा है इसलिए सचेत करने की कोशिश की है। फिलहाल प्रशासन आपकी आंख और कान नहीं बना है। आपके पास आपके लोगों का समूह है जो कम से कम सही—गलत बताने की स्थिति​ में है।
आपको शायद पता ना हो तो मैं बताता हूं कि छत्तीसगढ़ में आपकी सरकार आने के बाद नगद व्यवहार खत्म हो गया है। लोगों के पास नगदी का संकट है। रोजगार के आंकड़े आपको चिढ़ा सकते हैं। सीमेंट बाजार से गायब हो गया है। उसकी कीमत को लेकर जबरदस्त दबाव है। कंपनियां छत्तीसगढ़ में सीमेंट बना रही हैं और यहां आपूर्ति एक चौथाई कर चुकी हैं। यदि नहीं मालूम तो जरूर पता कीजिए। लोहे का हाल भी बेहाल है। बाजार में सन्नाटा पसर गया है। बिजली आपकी जानकारी के बिना गुल हो रही है। निर्माण एजेंसियों का पैसा अटकने से बहुत से लोग बर्बाद हो चुके हैं।
अगर आपको यह बात नहीं पता, तो यह आपको जानना चाहिए। आप सू​बे के मुख्यमंत्री हैं कोई थानेदार नहीं जो केवल विपक्ष के अपराध पर अट्हास करता हुआ बदले की भावना से पूरी ताकत झोंककर कीचड़ खेल रहा है।
आपकी जिन ​नीतियों का खामियाजा बाजार भुगत रहा है उसके पीछे सबसे बड़ा कारण बिना बजट प्रावधान बैंकों के कर्ज माफी की योजना है। इसके लिए आपने थोड़ी जल्दबाजी की है। आप सोच रहे होंगे कि सरकार ने कर्जा माफ किया है तो इसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा तो आप गलत हैं। हां, यह लाभ कारी होता अगर आप ‘जो कहा सो किया…’ को सार्थक करना दिखाने के लिए जुगत नहीं लगाते।
आपने बैंकों के कर्ज माफी की योजना पर सारा धन लगा दिया। इसके लिए चालू वित्तीय वर्ष के निर्माण का सारा पैसा झोंक दिया। परिणाम यह हुआ कि बैंकों तक केवल कागज का खेल हुआ। आपने कागज भेजकर बैंकों को कह दिया कि कर्ज माफी का पत्र जारी कर दें। किसानों को बहुतेरे ऐसे लोगों को लाखों रूपए की कर्ज माफी का पत्र मिला जिन्हें ना भी मिलता तो कोई बात ना होती। पर वास्तविकता में किसी के पास नगद नहीं पहुंचा। केवल कागज के भरोसे बाजार नहीं चलता है भूपेश बाबू…।
सरकार से लोगों को न्याय, सुविधा, सहायता और संस्कार सबकी अपेक्षा होती है। पर केवल दिखावा के चक्कर में यह सरकार ना फंसे इसलिए यह चेतावनी के स्वर हैं। अगर आप सोच रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में आप अपने वादों को पूरा करने के ​कारण विधानसभा के परिणाम को रिपीट करने वाले हैं तो यह मेरी भविष्यवाणी है कि ऐसा नहीं होने वाला…। यह होता, पर आपने मौका खो दिया है…। आपको यह सोचना होगा कहीं आप किसी दूसरे ‘अंडर करंट’ के शिकार तो नहीं हो गए भूपेश बाबू…।
आपको यह देखना होगा कि पूरे राज्य में मंत्रियों के दलाल घूम रहे हैं। पद की बोलियां लग रही हैं। सभी कीमत वसूलने की ताक पर हैं। ये दलाल वास्तविक हैं या फर्जी इसका भी ध्यान रखना आपकी जिम्मेदारी है। जनता ने सत्ता विकास और समन्वित दृष्टिकोण के लिए सौंपी है। जो गलतियां पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने की है कम से कम उसे रिपीट ना होने दें…। विश्वास जरूरी है पर घमंड सत्ता को नष्ट कर देगा। यह समझना होगा।
मुझे चापलूसी नहीं आती है इसलिए कई ऐसे मौके आए जब मुझे पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के साक्षात्कार का न्यौता मिला तो भी नहीं गया। क्योंकि मुझे सच के साथ खड़े रहने में आनंद आता है। भले वह विपक्ष में हो। वास्तव में मैं बहुत छोटा आदमी हूं। भले ही मैं अपने नाम के आगे यह नहीं लिखता। लिखना—पढ़ना पसंद है। अखबार निकालता हूं आप चाहें तो पुराने सरकार के आंकड़े चैक कर लें कि इस अखबार को कितना पैसा दिया गया है। सारे लोग आपके हैं, आप तत्काल जान सकते हैं। बावजूद इसके मैंने अब तक आपकी सरकार को एक पाती भी नहीं लिखा है कि पुराने भुगतान कर दिए जाएं। सरकार की वित्तीय हालत साफ दिख रही है। आपको संभालना होगा। पूरे छत्तीसगढ़ ने आप पर यह विश्वास जताया है।
डीएमएफ के नाम पर पूर्ववर्ती सरकार के अफसरों ने जो कारगुजारियां की हैं उसकी तो सीमा ही नहीं है। पर आपकी सरकार ने बिना जाने समझे कई ऐसी परियोजनाओं का पैसा रोक दिया है जिनका सरोकार वास्तव में आम जनो से है। आपके प्रशासन को चाहिए था कि वे स्थिति का सही आंकलन कर रिपोर्ट करते तब फैसला लेकर गैरवाजिब काम रोके जाते तो शायद हालत में काफी सुधार होता।
विकास के जो भी पैसे रोके गए हैं उसे तत्काल प्रभाव से अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाएं नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। यह सब आपको ही करना होगा। क्योंकि जैसी सत्ता होती है प्रशासन भी वैसा ही होता है। आप प्रशासन से जो सुनना चाहेंगे वही आपको सुनाया जाएगा। बस्तर में इंद्रावती का पानी सूख गया है। इसे किस सरकार ने सूखाया है यह चर्चा ना करते इंद्रावती के निरंतर बहने के लिए सार्थक प्रयास की उम्मीद समूचे बस्तर को है। संभव है आप इस संवाद को अन्यथा नहीं लेंगे… सादर…

आखिर कांग्रेस की अस्वीकार्यता की वजह क्या है? एक्जिट पोल के बाद दिखते हालात…

सुरेश महापात्र. लगातार दस बरस तक केंद्र की सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस के जो दुर्दिन 2014 में शुरू हुए थे उसका अंत फिलहाल नहीं है। सि...