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Monday, September 23, 2013

आतंकवाद और नक्सलवाद से मजबूर गुलिस्तां हमारा


ईद का चांद दिख गया और आज पूरे देश में ईद की खुशियां बिखरी रहीं। तमाम मस्जिदों में ईद की नमाज शांतिपूर्ण तरीके से अदा हो पाए और यह पर्व मुस्लिम जमात के लिए शांति और खुशियों का संदेश लेकर पहुंचे। यह सरकार के साथ—साथ पूरे मुस्लिम जमात की चिंता का सबब रहा। आखिर 30 रोजे की इबादद के बाद ईद के रूप में रोजेदारों को अल्लाह का तोहफा मिला है। 

ईद से ठीक पहले भारतीय सीमा पर पाकिस्तानी फौज ने एक बार फिर दो देशों की संवेदनाओं को कुरेदने का काम किया है। पांच फौजियों की हत्या जिस तरीके से हुई वह इस देश की सुरक्षा को चिंता में डालने के लिए पर्याप्त है। चीन, पाकिस्तान की सीमा पर सेना तफरीह पर तो गई नहीं है। उसे पता है कि सीमा पार दुश्मन हैं। जिनसे देश की रक्षा करनी है और अपनी भी! बावजूद इसके दुश्मन सेना आती है और हमारे जांबाजों की हत्या को अंजाम देकर निकल जाती है। यह देश की सत्ता के लिए केवल चिंताजनक नहीं है ​बल्कि शर्मनाक भी है।
क्या वास्तव में सीमा पार से पाकिस्तानी सेना ने ही इस करतूत को अंजाम दिया है या यह आंतकवादियों की कोई चाल है? जैसी शंका हमारे देश के रक्षा मंत्री एके एंटनी साहब ने संसद में पहले फरमाया था, जिसे विपक्ष के साथ पूरे देश की जनभावनाओं के दबाव में उन्होंने 24 घंटे के भीतर बदल भी दिया। दोनो ही बातें सच हो सकती हैं। सवाल इन बातों के सच या झूठ का नहीं है बल्कि सवाल यह है कि आखिर बार—बार सीमा पर हो रही इस तरह की हरकतों को सरकार ने क्यों गंभीरता से नहीं लिया। 
मीडिया में सीमा पार से हो रही दखलअंदाजी की खबरें लंबे समय से सुर्खियों में हैं। चीनी सेना और पाकिस्तानी सेना की दखल को देश के लिए सीधा खतरा माना जाना ​चाहिए था। जो नहीं हो रहा है। दुश्मन देश की लगातार बढ़ती दखलअंदाजी से पूरा देश चिंतित है। जिसका जवाब देश की जनता चाहती है। सीमा पर देश की सुरक्षा का मामला हो या देश के भीतर आतंकवादी हमलों का… लगातार मिलती विफलता चिंता के सिवाए कुछ दे भी तो नहीं सकती। संवेदनलशील दोनों ही मामलों में सरकार के नि​​ष्क्रिय रूख को लेकर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रया का सम्मान होना ही चाहिए। पर जिस तरह से संसद के भीतर इस मसले पर चर्चा की जगह हो रहे हो हल्ले पर नजर जाती है तो लगता है कि मानों किसी को देश की सुरक्षा की चिंता ही नहीं है। हो हल्ले की जगह गंभीर चिंतन और निर्णय की दरकार है। देश की जनता यह नहीं चाहती है कि देश युद्ध का अंतिम विकल्प ही अपनाएं पर उसे जवाबी कार्रवाई चाहिए।
जो मामला सीमा पर दुश्मन देशों के साथ दिख रहा है कमोबेश वैसी ही स्थिति देश के भीतर हो रहे आतंकी हमलों को लेकर भी दिखाई दे रही है। देश के करीब नौ राज्यों में पसरते नक्सलवाद के मसले पर भी कोई स्पष्ट रूख नही होने का खामियाजा बढ़ता ही जा रहा है। नक्सल प्रभावित राज्यों में कोई सुधार की गुंजाईश दिखाई नहीं दे रही है। यह देश की आंतरिक सुरक्षा का गंभीर मामला है जिसे राष्ट्रपति ने अपने भाषण में स्पष्ट कर दिया है। देश के प्रधानमंत्री कई बार दोहरा चुके हैं। राजनैतिक दल भी इस तथ्य को महसूस कर रहे हैं। बावजूद इसके मैदानी तौर पर इससे निपटने के लिए कोई स्पष्ट रणनीति का नितांत अभाव दिखाई दे रहा है। यह राज्यों की समस्या है या केंद्र की जिम्मेदारी…। 
यह बहस का विषय नहीं है बल्कि इस तथ्य को स्वीकार करने की जरूरत है कि यह बिल्कुल वैसी ही ​समस्या है जैसी सीमा पार से दुश्मन देशों का हमला, देश के भीतर आतंकवादी हमले को हम मानते रहे हैं। क्या संसद की जिम्मेदार नहीं है कि वह इस तरह के तमाम नापाक इरादों से भरे हमलों को लेकर एक साझी रणनीति तैयार करे। देश की सीमाएं सुरक्षित नहीं हैं, देश के भीतर आम आदमी सुरक्षित नहीं हैं और देश की सत्ता सुरक्षित नहीं है और क्या चाहिए उस फैसले के लिए जो इस परिस्थिति से निपटने के लिए रास्ता तैयार करने को बाधित करे। आतंकवाद और नक्सलवाद से मजबूर होते इस गुलिस्तां को बचाने के लिए सरकार से हमारी बस यही तो मांग है।

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