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Wednesday, May 22, 2019

अंडरगारमेंट दिखाती मीडिया और लोकसभा में चुनावी आचार संहिता…

सुरेश महापात्र.
लोकसभा चुनाव 2019 के मतदान के चार चरण पूरे हो चुके हैं और केवल तीन चरणों का मतदान शेष है। इक्कसवीं सदी के इस महत्वपूर्ण पड़ाव में लोकसभा के निर्वाचन की प्रक्रिया संपन्न हो रही है। इस सदी का यह चौथा लोकसभा चुनाव है। 
जिसमें सबसे ज्यादा विवाद नेताओं की भाषा और प्रचार के स्तर को लेकर हो रहा है। इस चुनाव में मीडिया की भूमिका को लेकर यह स्पष्ट धारणा बन चुकी है कि मीडिया भी इस राजनैतिक दौर में अपनी लड़ाई सीधे लड़ रहा है।
मीडिया में वर्ग भेद और मनभेद का स्तर अब किसी से भी छिपा नहीं है। इलेक्ट्रानिक न्यूज चैनलों में सीधे—सीधे चैनलों का नाम लेकर आरोप ऐसे लगाए जा रहे हैं जैसे मीडिया संस्थान ही चुनावी मैदान में सीधे उतरे हुए हों।
पत्रकारिता निम्नतम् स्तर तक पहुंच चुकी है। भले ही मीडिया का एक तबका अभी इस बात को लेकर हल्ला कर रहा है कि मीडिया में अभिव्यक्ति की आज़ादी को खतरा मंडरा रहा है। इसमें बाधाएं पहुंचाई जा रही हैं। पर इसके इतर बहुत कुछ है जो सीधे अखबार के पाठक और न्यूज चैनलों के दर्शक समझ रहे हैं।
चुनावी आचार संहिता को लेकर 16वें आमचुनाव में सबसे ज्यादा सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हो रही है। अब तक करीब तीन दर्जन मामलों की सुनवाई और पुनर्विचार की अपील दाखिल की जा चुकी हैं।
अभी भी करीब दर्जनभर मामले सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग हैं। जिस पर आने वाले दिनों में सुनवाई होगी। आखिर ऐसा क्या है जिसके चलते आम चुनाव में यह नौबत आन पड़ी।
इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है राजनैतिक दलों द्वारा अपने पक्ष में महौल बनाने का इस चुनाव में जिस तरह से प्रयास किया गया वह अभूतपूर्व है। बीते लोकसभा चुनाव में जब हिंदुस्तान की आवाम को 15 वीं लोकसभा के लिए सरकार चुनना था तब पूरे देश में वातावरण यूपीए 2 सरकार के विरुद्ध था। कांग्रेस पर लाखों करोड़ के भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। निर्भयाकांड के बाद पूरे देश में सत्ता के विरुद्ध जबरदस्त आक्रोश था।
इसी के साए में चुनाव से पहले ही एक प्रकार से विपक्ष के पक्ष में हवा बन चुकी थी। बस इस हवा को एक चेहरा देने का काम था जिसे भाजपा ने नरेंद्र मोदी को सामने कर पूरा कर दिया। 
2014 में चुनाव से पहले जनता के मन में अगली सरकार को लेकर एक बड़ी तस्वीर थी। जिसमें बहुत कुछ बदलने का इंतजाम साफ दिख रहा था। देश में बने भ्रष्टाचार और देश के बाहर जमा कालाधन को लेकर बड़ा सवाल खड़ा था। बेरोजगारी से बेजार युवाओं के लिए रोजगार, महंगाई से परेशान परिवारों के लिए कीमतों में नियंत्रण, पेट्रोलियम पदार्थ की कीमतों में इजाफा के साथ देश की आतंरिक सुरक्षा और बाह्य सुरक्षा भी एक बड़ा विषय रहा।
मीडिया को तब अपनी तरफ से कुछ भी करने की जरूरत नहीं थी। बस हवा के साथ बह जाने की राह थी। यह हवा ना बदले और मतदान तक देश के भीतर कांग्रेस अपने प्रति किसी प्रकार का सुरक्षा कवच ना बना सके बस इतना ही विपक्ष की जिम्मेदा​री थी। जिसे मीडिया के माध्यम से किया जाना था। जिसमें कोई ​अतिरिक्त समस्या भी नहीं थी।
नरेंद्र मोदी अपने गुजरात माडल को लेकर सामने थे। सभी को लग रहा था कि जिस तरह से गुजरात में व्यापार की स्थिति है वही स्थिति पूरे देश में निर्मित होने वाली है। लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी ने यह तो साफ कर दिया था कि 2002 के गुजरात दंगों से भाजपा काफी आगे निकल चुकी है। 
वह एक पूर्ण व मजबूत सरकार देने की स्थिति में है। इसी दौर में सीएजी विनोद राय के कैल्कुलेशन ने 2जी घोटाले की एक नई लकीर खींच दी। कामनवेल्थ गेम्स, कोयला घोटाले  को लेकर कठघरे में खड़ी यूपीए के सामने यह विकल्प भी नहीं बचा था कि वह हवा का रूख बदल दे।
सुप्रीम कोर्ट, सीएजी, ईडी, चुनाव आयोग से लेकर सभी केंद्रीय विभाग इस बात को समझ चुके थे कि 10 साल तक सरकार चलाने वाली यूपीए के लिए आने वाले दिन अच्छे नहीं हैं क्योंकि विपक्ष में भाजपा ने जो स्लोगन जारी किया ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ वह चल निकला था।
अन्ना हजारे का लोकपाल की नियुक्ति को लेकर भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन व आंदोलन, बाबा रामदेव का कालाधन के खिलाफ प्रदर्शन और अनशन पूरे देश का वातावरण बदल चुका था। कांग्रेसी भी यही समझने लगे थे कि कांग्रेस के भीतर की निरंकुशता चरम पर है। यही वजह है पूरे देश में बदलाव को लेकर बड़ी हवा बनी। इसलिए 2014 के चुनाव के दौरान राजनैतिक मंचों पर जो भाषण दिए गए वे कहीं से स्तरहीन नहीं थे। वे पूर्णतौर पर राजनैतिक कसौटी में खरे थे।
पर 2019 के चुनाव के समय तक बहुत कुछ बदल चुका है। देश के भीतर ना तो किसी के खिलाफ बड़ी लहर है और ना ही किसी के पक्ष में… लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्रवाई और कार्यशैली को लेकर काफी पाजिटिव हैं। वहीं 2014 में कांग्रेस के खिलाफ जिस तरह का एक तरफा लहर था वह पूरी तरह से गायब है। 
बीते पांच साल तक कांग्रेस अपने सबसे निचले स्तर 44 सदस्यों के साथ संसद में रही। ​उसके पास विपक्ष के नेता जितनी ताकत भी नहीं बची। पर भाजपा के सदस्यों की संख्या पूर्ण बहुमत से बहुत ज्यादा 282 रही। 
एनडीए के तौर पर भाजपा के पास बड़ा समर्थन साफ था। लोगों की उम्मीदें थीं और सवाल थे। जिनमें 2014 में किए गए वादे सत्ता को सबसे ज्यादा चुभ रहे हैं। वे नहीं चाहते कि 2014 के मुद्दों पर ही दुबारा चुनाव हो। एक प्रकार से सत्ता का संघर्ष ही इस बात को लेकर है कि 2019 में गोलपोस्ट बदला जाए।
सत्ता के गोलपोस्ट बदलने की कवायद में सबसे बड़ा कारक मीडिया है। मीडिया के माध्यम से जनता के बीच मुद्दों को बदलने की तो कोशिश हो रही है वही अब सभी के सामने दिख रहा है। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी जैसे राजनैतिक दलों का खत्म हुए जैसा परिणाम उन्हें सता रहा है। यही वजह है उनकी जुबानी स्तर भी निम्न हो चुकी है। भाजपा प्रत्याशी जयाप्रदा को लेकर सपा प्रत्याशी आजम खान की टिप्पणी भारतीय लोकतंत्र में प्रचार के गिरते स्तर का प्रमाण है। वे चाहते हैं कि मीडिया में बने रहकर माहौल को बदलने में बड़ी भूमिका निभाएं। 
इस बीच 2014 से 2019 के बीच बहुत कुछ घटा है जिसमें कहीं कांग्रेस को साख हासिल हुई तो भाजपा को चुनौती ​मिली। यही वह कारण है कि 2019 में भाजपा जोखिम लेने के मूंड में तो कतई नहीं है। पर सबसे रोचक बात तो यह है कि 2014 में जैसे साफ लग रहा था कि सीबीआई, ईडी, चुनाव आयोग, सीएजी, सीवीसी आदि संस्थाओं में सरकार के फैसलों के खिलाफ खड़े होने की आजादी थी वह आज़ादी 2019 के आते—आते खत्म होती दिख रही है। इससे जुड़ी कई घटना देश के सामने हैं।
यानि पूरे देश में जो माहौल है वह सत्तर बरस में पहली बार बिल्कुल अलग तरह का है। इस माहौल में सबसे बड़ी बात यह दिख रही है कि देश के मीडिया घराने ही बंटे हुए दिख रहे हैं। मीडिया कभी इतनी अविश्वसनीय नहीं रही।
2014 के चुनाव के पूर्व भाजपा ने आईटी सेल गठित कर जनमानस की मानसिकता को स्थाई तौर पर बदलने में बड़ी भूमिका निभाई थी। यह 2019 के आते—आते कांग्रेस का भी हथियार बन चुका है। अब दोनों बड़ी पार्टियों की ओर से आईटी सेल के लोग परोक्ष तौर पर मानसिकता को प्रभावित कर रहे हैं। 
इसमें ज्यादा नुकसान में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा है। क्योंकि कांग्रेस के आईटी सेल से 2014 हके पूर्व के सारे विडियो शेयर कर सवाल की फेहरिस्त खड़ी की जा रही है। जिसके जवाब में भाजपा आईटी सेल 2014 से पहले बनाई गई वही पुरानी क्लिपिंग को चला रही है।
यह बताने का आशय यह है कि आज के चुनाव में जिस तरह से मुद्दों से परे जाने की कवायद हो रही है उसमें मीडिया सबसे बड़ा हथियार बना है। चैनलों में एंकरों को लेकर आपस में लड़ते कभी देखा नहीं गया। वे एक—दूसरे के खिलाफ बातें कर रहे हैं। यानी मीडिया पूरी तरह से बिखरी हुई है। 
चुनाव आयोग में जिस तरह से शिकायतों को अंबार है और उसके निपटारे को लेकर सवाल उठ रहे हैं यह भी चिंता के स्तर को छू चुका है। लग रहा है कि आयोग ने अब ठान लिया है कि राजनैतिक पार्टी जिन्हें जो करना हैं करें वह किसी बड़े नेता पर कार्रवाई नहीं करेगा। 
चाहे राहुल गांधी भाजपा के अध्यक्ष को हत्या को आरोपी बता दें या नरेंद्र मोदी सेना, सर्जिकल स्ट्राइक को मुद्दे को छोड़ने के लिए तैयार ना हों। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर आयोग को शिकायतों को निपटारा करना यह साफ बता रहा है कि अंदरखाने में असहजता बहुत ज्यादा है।
एक बात और कि आम जनमानस इसके बाद भी चुप्पी साधकर बैठा है यही सत्तारूढ़ पार्टी के लिए सबसे बड़ी चिंता है। इस चिंता से निपटने का एक मात्र तरीका मीडिया का बेहतर और ज्यादा अच्छा प्रयोग किस तरह से किया जाए इसके लिए नए—नए अवसर बनाए जा रहे हैं। यह भी अभूतपूर्व है। अक्षय कुमार का नान पालिटिकल इंटरव्यू कई सवालों को खड़ा करता है। इसी तरह से पीएम रहते जो नई लकीर नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार की खींच रहे हैं उसका असर आने वाले चुनावों में भी देखने को मिलेगा।
एक बड़ी बात है जहां से हम शुरू हुए वह यह कि इस चुनाव में परिणाम चाहे जो आए मीडिया का अंडरगारमेंट साफ दिखने लगा है। यह उसके नैतिक और चारित्रिक पतन का नया स्तर है। चैनलों में एंकर पार्टी के प्रवक्ताओं की तरह का व्यवहार कर रहे हैं। कोई बेदाग नहीं है। 
किसी को केवल सत्ता में खामी दिख रही है तो कोई केवल विपक्ष के विरूद्ध खबरें परोसकर स्वयं को बेहतर दिखाने की कोशिश में जुटा है। यह बात समझना चाहिए कि विपक्ष का काम ही है सत्ता के विरूद्ध सवाल खड़ा करना। विपक्ष से सवाल करते हुए उसे राष्ट्रद्रोही तक साबित करना मीडिया का काम कैसे हो सकता है। इसे तय करने के लिए सरकार और उसका अपना कानून है। 
2014 से पहले जिस मीडिया के कव्हरेज ने आम मतदाताओं का दिल जीत लिया था वे अब संदेह के घेरे में क्यों खड़े हैं? यह चिंतन मीडिया को करना है। सरकारें तो आएंगी, जाएंगी… पर मीडिया को अपना काम करते रहना होगा… क्योंकि सत्ता का चरित्र कभी नहीं बदलता यह सच है। मीडिया को भी अपना चरित्र संभाल कर रखना चाहिए।

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