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Friday, November 13, 2009

मावोवाद और सरकार के बीच फंसे ग्रामीण

देश की राजधानी दिल्ली से बस्तर पहुँचने वाले पत्रकारों का पहला सवाल होता है। बताएं यहाँ क्या चल रहा है? सुना है की यहाँ फोर्स ने बड़ी संख्या में आदिवासियों को मौत की नींद सुला दिया है। जंगल के भीतर फर्जी मुठभेडों में नक्सालियों के नाम पर आदिवासियों की हत्या हो रही है? उनके इन सवालों का जवाब देना कितना कठिन है इन सवालों को पढ़कर ही समझा जा सकता है। दिल्ली वाले चाहतें हैं कि उनकी मुलाकात अन्दरवालों से हो जाय उन्हें लगता है कि यहाँ के सभी पत्रकार, नेता, अफसर और ग्रामीण आदिवासी नक्सलियों से रोज मिलते-जुलते हैं। रोज बातें होती हैं। सरकार की नीतियों पर नक्सलियों से सीधी चर्चा होती है और वे अन्दर होने वाली मुठभेडों के बारे में पूरा सच बता जातें हैं। सच्चाई तो येही है किसाडी बांटें केवल काल्पनिक ही हो सकती हैं। नक्सलवाद, सरकार और उसके बिच फंसे ग्रामीणों के सच को जानने के लिए मुझे एक किरदार मिल गया है उसका नाम है कमाराम अतरा! दंतेवाडा जिला मुख्यालय से करीब १५ डी जाती है। कलोमीटर की दूरी पर कुअकोंडामार्ग में एक गाँव है मसेनार इसके बुरुमपारा में मजदूरों के लीडर के रूप में कम कराने वाला २७ वर्षीय युवक कमाराम। इस गाँव कि आबादी करीब १५०० है। इसमे अगर पंचायत पंचायत सचिव को छोड़ दे तो कोई भी १२ vin पास नही है। और यही एक मात्र सरकारी अफसर कर्मचारी है जो गाँव की पहुँच रखता है। गाँव तक पहुंचने के लिए बरसात में भरी दिक्कत होती है। एक पहाडी नाला जो गाँव को शेष इलाके से काटती है उसे पार करने के लिए मुख्य सड़क तक पहुँचने के लिए बरसात में एक तर का सहारा लेना पड़ता है। अन्यथा दूरी बढ़ जाती है। इस दृश्य को पढ़ने के बाद अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिला मुख्यालय से सटे इस ग्राम में कितने फीसदी विकास पहुँचा है। इस गाँव के कमाराम ने जगदलपुर तक नही देखा था। पर एक मौका ऐसा आया कि एक वातानुकूलित वाहन में हम दोनों सवार थे। हमारा मुकाम प्रदेश की राजधानी मैंने इस यात्रा के दौरान कमाराम को बड़े करीब से देखा और उसकी नजरों से राजधानी को देखने की कोशिश की। रायपुर जाने के लिए मेरे एक मित्र ने फोन पर कहा मैंने हाँ कराने दी। करीब रत दस बजे मेरे घर पर गाड़ी रुकी मैं उसमे सवार हो गया। मैंने देखा की पीछे वाली सीट पर एक युवक जो दिखने में din, हीन आदिवासी साफ दिखाई दे रहा था। मैंने अपने मित्र से पूछा कौन है? मित्र ने बताया मेरा बेटा है। मैंने कहा बेटा? अरे वो वाला नहीं ये मुझे अपना बाप मनाता है, चाहो तो पूछकर देख लो? मैंने नहीं पूछा। फिर मेरे मित्र ने उससे कहा माँ..भो..वाले बता मैं कौन हूँ ? तेरा बाप ना! पीछे से आवाज आई हव। यानि हाँ। यह सुनकर मुझे अजीब लगा तो मैंने पूछा आपके ऐसा कहने पर इसे बुरा नही लगा? तो मित्र ने कहा मैं इसके साथ ऐसे ही बात करता हूँ। इन बातो के बीच हम जगदलपुर पहुँच गए। raat के करीब सवा ग्यारह बज रहे थे, कम खिड़कियों से झाँककर कुछ देखने की कोशिश कराने रहा था। मेरे मित्र ने बताया कामा..माँ..भो..वाले ये जगदलपुर है। पहले कभी आया था। जवाब मिला नई। कामा उसे मिलनेवाली गालियों को पूरी तरह अनसुना करते हुए शहर देखने में तल्लीन था। मुझे लगा की वह इस शहर की तुलना दंतेवाडा व् अपने गाँव से मन ही मन करने लगा था। छत्तीसगढ़ बनने के बाद राजधानी के रूप में पुराना और नया रायपुर अब देखते ही बनता है। अपनी पैदाइस के २७ साल बाद भी जिस कमाराम को जगदलपुर देखना नसीब न हो सका था, उसने इस बार अल सुबह सीधे राजधानी में अपनी आँखे मिचाते हुए खोली। शेष अगली पोस्ट पर...

1 comment:

  1. सुरेश, सुदूर दंतेवाड़ा जैसे इलाके में रहकर तुमने यह प्रयास शुरू किया है, जो निश्चित रूप से सराहनीय है। कई कारणों से नक्सलवाद से जुड़ी कई बातें हम अखबारों में नहीं पढ़ पाते, मुझे यकीन है कि अपनी पोस्ट के माध्यम से तुम उन्हें बताने में कामयाब होगे। तुम जानते हो कि मैं सदा तुम्हारा शुभचिंतक रहा हूँ और तुम्हारे हर रचनानात्मक कार्य की सराहना करता हूँ। मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं।
    वैसे मेरा भी ब्लॉग है, चाहो तो लॉन इन कर लेना।

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