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Wednesday, March 14, 2012

अखिलेश से सीखें राजनीति का ककहरा...

अखिलेश से सीखें राजनीति का ककहरा...
अखिलेश देश के युवा राजनीतिज्ञों के लिए एक संदेश लेकर आए हैं उसे समझने की दरकार है। वास्तव में यह संदेश कम बल्कि नई राजनीति का ककहरा है जिसे वे सीखाना चाहते हैं। विशेषकर उन पुत्रों के लिए उनका संदेश है जिनके पिता राजनीति में एक ऊंचाई हासिल कर चुके हैं। हमारे प्रदेश में ऐसे राजनीतिक पुत्रों की भी चर्चा चल रही है।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की कमान अब युवा अखिलेश के हाथों में होगी! समाजवादी पार्टी नेतृत्व ने विधानमंडल सदस्यों की बैठक में इस बात पर मुहर लगा दी है। अखिलेश के पिता और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने उत्तरप्रदेश में जीत का सेहरा अपने पुत्र के सिर बांधा है। 403 विधानसभा सीटों वाले इस प्रदेश में 224 सीटें एकतरफा जीतवा कर ले आना कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। इस बार उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के यंग्री यंग मैन की भूमिका निभाते गांधी परिवार के युवराज राहुल अपने सिपाह सलाहकार दिग्विजय सिंह के साथ मैदान पर डटे थे। जनता ने देश के सबसे पुराने कांग्रेस पार्टी के युवा नेतृत्व को नकार दिया। आखिर राहुल गांधी और अखिलेश यादव में ऐसा क्या अंतर था? जिसे देखते हुए जनता ने अखिलेश को अपना पूर्ण समर्थन प्रदान किया और राहुल को नकार दिया। अखिलेश यादव न केवल मुलायम के पुत्र के रूप में अपनी पहचान दी बल्कि उसने उत्तर प्रदेश की जनता को अपने भीतर एक ऐसे नेता की छवि दिखाने की कोशिश की जो राजनीति की परंपराओं से परे नेताओं की, राजनीतिक दलों की बुराई करना छोड़ अपनी बात रखने और जनहितकारी योजनाओं को सामने रखना उचित समझा। संभव है उनका यही रूप जनता को सुहाया। जिसका परिणाम अब सभी के सामने है। सबसे बड़ी बात देश में अखिलेश कोई पहले ऐसे युवा नहीं हैं जो परिवार की राजनीति को आगे बढ़ाया हो। ऐसे बहुत से चेहरे भारतीय राजनीति में दिखाई देते हैं। पर अखिलेश जैसी ऊंचाई सभी को नसीब नहीं हो सकी। वहीं इस बार के चुनाव में पंजाब का परिणाम भी शिरोमणि अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल के पुत्र सुखबिर सिंह बादल की ओर इशारा करती दिख रही है। कांग्रेस की राजनीति में राहुल गांधी के सीनियर ज्योतिरादित्य भी सांसद हैं। पर वे अपने पिता के कद का पीछा करते दिखते हैं उससे आगे नहीं निकल सके। आज भी वे अपने दम पर मध्यप्रदेश में कांग्रेस का बेड़ा पार करने में अक्षम हैं। यही हाल सचिन पायलेट का भी है। इसी तरह से और भी बहुत से चेहरे हैं जो अपने दम पर किसी राज्य में पार्टी की सत्ता लाने में अक्षम हैं। राहुल गांधी भी अब अखिलेश से पीछे हो गए हैं। सत्ता के खेल में जो जीता वह सिकंदर वाली बात तो होती ही है पर उत्तरप्रदेश की राजनीति का भविष्य बनकर अखिलेश इस तरह से उभरेंगे यह शायद उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने भी नहीं सोचा होगा। खैर बात यही नहीं है कि अखिलेश की जीत पर इतनी सारी बातें क्यों लिखी जाए? बल्कि अब वक्त आ गया है कि देश के राजनीतिक संतानों को मुलायम पुत्र अखिलेश से राजनीति का ककहरा सीखना चाहिए। इससे देश को भी फायदा ही होगा। पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार जब बतौर विदेश मंत्री भारत की सरजमीं पर आईं तो देश की मीडिया ने भी माना कि पाकिस्तान ने विदेश नीति के लिए साफ्ट चेहरा ढूंढ निकाला है। जो न केवल चतुर है बल्कि तल्ख भी। जरूरत के हिसाब से अमेरिका को धमकी देना भी खार को आता है। हिलेरी के साथ संबंध गांठना और ओबामा की ओर आंखे तरेरना यही सही विदेश नीति को प्रदर्शित करता है। यानी युवा पीढ़ी परंपरागत सोच से आगे निकलकर काम करती है। राहुल, अखिलेश जैसे नेता देश का भविष्य हैं उनसे देश को बहुत सी उम्मीदें हैं। पर फिलहाल लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की राजनीति ज्यादा चलती है। ऐसे में पार्टी से परे नेतृत्व का चेहरा होना चाहिए। राहुल गांधी में भारत के लोग उनके पिता राजीव गांधी को ढूंढते हैं। राहुल कांग्रेस की परंपराओं को तोड़ नहीं सकते उन्हें न चाहते हुए भी बहुत से ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जो सीनियर कानों में चुगली भरे अंदाज में कहते हैं। अखिलेश ने समाजवादी पार्टी की परंपराओं को तोडऩे की कोशिश की जिसे उत्तरप्रदेश की जनता ने भी देखा। उन्होंने कई सभाओं में पिता के नाम से ज्यादा ध्यान देते लोगों को पार्टी की योजनाएं बताईं। घोषणापत्र में पार्टी का मिथक तोड़ा। टिकट बंटवारें में शिक्षित और युवा चेहरों पर तरजीह दी साथ ही अनुभव का भी संतुलन बनाया। यह सब कुछ पर्यावरण विज्ञान में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके अखिलेश ने किया। अब वे अपने प्रदेश के राजनीतिक पर्यावरण का सुधार कर पाते हैं या नहीं इसका इंतजार रहेगा। अखिलेश देश के युवा राजनीतिज्ञों के लिए एक संदेश लेकर आए हैं उसे समझने की दरकार है। विशेषकर उन पुत्रों के लिए उनका संदेश है जिनके पिता राजनीति में एक ऊंचाई हासिल कर चुके हैं। हमारे प्रदेश में ऐसे राजनीतिक पुत्रों की भी चर्चा चल रही है। डा. रमन सिंह के पुत्र अभिषेक, अजित जोगी के पुत्र अमित, पं. श्यामाचरण शुक्ल के पुत्र अमितेष, मोतीलाल बोरा के पुत्र अरूण बोरा, अरविंद नेताम की पुत्री डा. प्रीति नेताम, बलिराम कश्यप के पुत्र केदार और दिनेश, महेंद्र कर्मा के पुत्र दीपक और छविंद्र....। इनमें से कितने चेहरे ऐसे हैं जो वर्तमान राजनीति के लिए अखिलेश की शर्तों को पूरा करते दिख रहे हैं?
और अंत में...
छत्तीसगढ़ की राजनीति फिर अपने पैरों पर खड़े होने की तैयारी कर रही है। नक्सली हिंसा के कारण न्यूजीलैंड के डाक्टर छत्तीसगढ़ नहीं आ सके। सो छत्तीसगढ़ की राजनीति अब अन्य प्रदेशों की सहायता से रोबोटिक पैर हासिल करेगी। सवाल यह नहीं है कि राजनीति को पैर मिलेंगे या पर। जिसकी सहायता से कांग्रेसी दौड़ेेंगे या उडऩे लगेंगे। या इस यंत्र के सहायता से जोगी जी खड़े हो जाएं और कांग्रेसियों को एक बार फिर बैठने का मौका मिल जाए?
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नरम दिल इंसान, बेहतर अफसर और स्वाभिमानी व्यकित राहुल शर्मा का जाना

श्रद्धांजलि शेष
आज दोपहर बिलासपुर एसपी के रूप में युवा आर्इपीएस अधिकारी राहुल शर्मा की मौत की खबर ने चौंका दिया। खबर सुनने के बाद मानों स्तब्धता ने जकड़ लिया। मौत की परिसिथतियों ने जो बातें बयां की है उसके मुताबिक राहुल ने अपनी सर्विस रिवाल्वर से आत्महत्या की। यह बात उनकी कार्यशैली और जीवन के प्रति सकारात्मक नजरिए को समझने के कारण स्वीकार नहीं हो पा रहा है। खैर अब राहुल शर्मा की यादें शेष हैं। किन परिसिथतियों के सामने उन्होंने स्वयं को असहाय पाया और जीवन से ज्यादा आसान मौत को पाते गले लगाने का दुस्साहस किया। यह हमारे लिए अबूझ पहेली ही रहेगा। राहुल शर्मा 6 अप्रेल 2006 से 9 जून 2009 तक दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक रहे। इस दौरान उनकी कार्यशैली को नजदीक से देखने का मौका मिला। अब सुकमा जिला में शामिल हो चुके उर्पलमेटा इलाके में नक्सलियों के कैंप का पीछा करते निकली सीआरपीएफ जब घात में फंस गर्इ, उसके बाद दूसरे दिन सर्चिंग में वे स्वयं निकले थे। सुबह से शाम हो गर्इ पैदल सर्चिंग करते हुए जवानों के शव हासिल किए जा सके। मैं भी उनके साथ निकली टीम में शामिल था। हमारी नजर खबरें तलाश रहीं थीं और राहुल शर्मा एक एसपी के रूप में अपने फर्ज को निभाने में जुटे थे। करीब 36 घंटे होने के कारण शव से दुर्गंध उठने लगी थी। एक एसपी के रूप में राहुल शर्मा ने पूरे रास्ते जवानों के शवों को कंधा दिया। मुख्यमार्ग में पहुंचने के बाद भी वे अपनी जिम्मेदारी के साथ डटे रहे। करीब 12 किलोमीटर पैदल जाना और लौटना, उसके बाद भी चेहरे में शिकन नहीं। यही देखा था हमने। जिम्मेदारी का ऐसा भाव कहां देखने को मिलता है। ऐसी ही एक पीड़ा तब दिखी जब जगरगुंडा से दोरनापाल की ओर रास्ता खोलने निकली हेमंत मंडावी की टीम नक्सलियों का शिकार हो गर्इ। जवानों का पता लगाने के लिए एक बार फिर वे निकले। थानेदार हेमंत मंडावी का शव देखने के बाद उनके चेहरों पर आए भावों को देखकर ही समझा जा सकता था। एक प्रकार से अपने जवानों से भावनात्मक रिश्ता रखने वाले राहुल अब सारे रिश्तों को खत्म करके दूर जा चुके हैं। नक्सल प्रभावित जिले में अफसरों की संवेदना ज्यादा आसानी से जनता को दिख जाती है। हिंसा से पीडि़त लोगों को अफसरों की अपनापन पिरोर्इ मुस्कुराहट से ज्यादा राहत मिलती है। वे हर किसी से मुस्कुराते मिलते। चैंबर में पहले ठंडा पानी फिर बातें। भले ही उसमें पुलिस की शिकायतें हों या किसी की पीड़ा। दंतेवाड़ा में किसी ने उन्हें कभी तनाव में झुंझलाते, गुस्सा दूसरे पर निकालते नहीं देखा है। बड़े से बड़े मसले को सहजता के साथ निपटा देना जैसे उनके लिए सबसे आसान काम था। वह भी इसलिए क्याेंकि वे अफसर से ज्यादा बेहतर इंसान थे। चुनाव के समय राहुल शर्मा ने यह भी दिखाया कि उनके लिए स्वाभिमान बड़ी चीज है उससे खिलवाड़ वे बर्दाश्त नहीं कर सकते। चुनाव पर्यवेक्षक बिहार कैडर के आर्इएएस सीके अनिल थे उनके व्यवहार ने बतौर एसपी काम कर रहे राहुल शर्मा के स्वाभिमान को स्वीकार नहीं हुआ तो उन्होंने पर्यवेक्षक के बारे में शिकायत करने से भी परहेज नहीं किया। यानी वे नरम दिल इंसान, बेहतर अफसर और स्वाभिमानी व्यकित थे। अब उनकी यादें शेष रहेंगी, हमारी श्रद्धांजलि।
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आखिर कांग्रेस की अस्वीकार्यता की वजह क्या है? एक्जिट पोल के बाद दिखते हालात…

सुरेश महापात्र. लगातार दस बरस तक केंद्र की सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस के जो दुर्दिन 2014 में शुरू हुए थे उसका अंत फिलहाल नहीं है। सि...