सुरेश महापात्र.
लगातार दस बरस तक केंद्र की सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस के जो दुर्दिन 2014 में शुरू हुए थे उसका अंत फिलहाल नहीं है। सिमटते-सिमटते कांग्रेस अब उसी बेल्ट पर शेष है जहां उसे किसी क्षेत्रीय राजनीतिक दल की चुनौती नहीं मिल रही है।
यानी जिस भी राज्य में किसी क्षेत्रीय राजनैतिक दल की जड़ें गहरी हुईं वहां से कांग्रेस बाहर हो चुकी है। 2019 के चुनाव पश्चात एक्जिट पोल सर्वे तो कम से कम यही बयां करते नजर आ रहे हैं। वैसे भी कांग्रेस से कोई भारी भरकम उम्मीद तो थी ही नहीं।
बस यही लग रहा था कि राष्ट्रीय स्तर पर किसी मुद्दे पर जब बात होगी तो कांग्रेस के साथ एक गठबंधन खड़ा होगा जिसे विकल्प माना जा सकेगा। पर ऐसा हुआ हो दिख नहीं रहा है।
2019 के चुनाव में कांग्रेस जब मैदान में थी तो उसके सामने हाल ही में तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान के चुनाव परिणाम से मिली सकारात्मकता सामने थी। यह उर्जा का संचार कर सकती थी पर नहीं कर पाई।
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, हरियाणा, नार्थ ईस्ट व जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस की स्थिति नाजुक ही बनी हुई है। दक्षिण भारत के अलावा यह वह बेल्ट है जहां भाजपा ने रणनीतिक तौर पर खुद को बेहद मजबूत किया है। वहीं कांग्रेस की सभी रणनीति विफल होती दिख रही है।
यह बड़ा विषय है कि आखिर कांग्रेस के प्रति यह अविश्वास का कारण क्या है? क्या कांग्रेस को लेकर आम लोगों के मन में अब किसी प्रकार का संदेह नहीं रहा? या कांग्रेस का नेतृत्व ही अक्षम है? ये दो बेहद महत्वपूर्ण सवाल हैं। जिसका जवाब ढूंढना कांग्रेस संगठन की जिम्मेदारी है।
पहली बात तो यह है कि बीते पांच बरस में केंद्र की मोदी सरकार को लेकर कांग्रेस का रवैया अफेसिंव ना होकर डिफेंसिव ही रहा। कांग्रेस ने चुनाव से दो बरस पहले तक केवल यही प्रयास किया कि किसी तरह से वह राहुल गांधी को पार्टी की कमान सौंपने लायक साबित कर दे।
इसी राहुल गांधी पर 2014 के समय से भाजपा लगातार हमले करती नजर आ रही थी। जब प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह रहे और यूपीए चेयरपर्सन की भूमिका में सोनिया गांधी राजनीति के केंद्र में रहीं। बावजूद इसके राहुल गांधी को अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए जो भी जोड़ तोड़ करना पड़ा वह जगजाहिर रहा।
आखिरकार 2017 में राहुल गांधी की ताजपोशी के लिए कांग्रेस के बड़े नेताओं की सहमति मिली तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कांग्रेस को परिवार की पार्टी का तमगा मिलने के बाद आम जनमानस में जो धारणा बनी है उसका तोड़ फिलहाल मिलता नहीं दिख रहा है। इसके लिए कांग्रेस को या तो अपनी कार्यशैली को बदलने की जरूरत होगी जिसमें निर्णायक भूमिका में गांधी परिवार ना हो। पर ऐसा कतई संभव नहीं है।
भाजपा, कांग्रेस की इसी कमजोरी पर लगातार हमले कर रही है। वह चाहती है कि पहले गांधी परिवार के हाथ से कांग्रेस बाहर तो निकले। उसका अनुमान है जैसे ही यह मकसद पूरा होगा। कांग्रेस बिखर जाएगी और भाजपा का दूसरा राष्ट्रीय विकल्प हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।
इससे भाजपा को अगले कम से कम दो दशक तक एक क्षत्र राजनीति का पूरा अवसर मिलेगा। जिसमें वह अपने उन सभी एजेंडा पर काम कर पाएगी जिसके लिए उसका गठन किया गया है।
पर इससे बड़ी बात तो यह है कि कांग्रेस अपने विरोधी के इस मंतव्य को ना समझ रही हो यह माना ही नहीं जा सकता। यदि कांग्रेस के सभी आला नेता इस बात को समझ रहे हैं तो वे कांग्रेस को मजबूत करने के लिए सही कदम उठाने से क्यों हिचक रहे हैं।
क्या वास्तव में गांधी परिवार ऐसे किसी विकल्प को आगे बढ़ने से रोक रहा है जिसमें राष्ट्रीय नेतृत्व को क्षमता हो। या कांग्रेस के भीतर ही खेमेबाजी हो रही है जिसमें सारे धड़े अपने व्यापक हित के लिए राष्ट्रीय नेतृत्व को चुनौती देने से बच रहे हैं।
मेरी समझ से यह सबसे बड़ा अवसर था जब कांग्रेस पांच साल तक जमीनी मेहनत कर स्वयं को बेहतर विकल्प साबित कर सकती थी। पर ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस ने संसद से लेकर सड़क तक केवल वही राजनीति की जिससे वह खुद को बचता हुआ दिखा सके। संसद में सवाल उठे तो भी उसे आम मतदाता तक पहुंचाने में वह कामयाब नहीं हो पाई।
बड़ी बात तो यह है कि 2016 में विमुद्रीकरण को लेकर आम जनमानस में नकारात्मक धारणा है। ठीक एक बरस बाद 2017 में जीएसटी को लेकर भी कमोबेश यही स्थिति है। पर इसे अपने पक्ष में माहौल बनाने में कांग्रेस पूरी तरह विफल रही। वह आम जनता को इस समस्या के बाद उपजे आर्थिक हालात का विकल्प सही मायने में देने में असमर्थ रही।
इसके उलट सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने इन दो मोर्चा में विफलता के बावजूद स्वयं को इसके नकारात्मक प्रभाव से बचा लिया। कांग्रेस के द्वारा राफेल मामले में जो भी स्टैंड लिया गया उसमें कांग्रेस को विपक्ष का साथ मिला ही नहीं। राजनीति तो यही कहती है कि आपकी सफलता या विफलता इस बात पर है कि आप मुद्दा खत्म करते हैं या मुद्दा उठाने वाले को…।
कांग्रेस सीधे तौर पर ना तो सुप्रीम कोर्ट पहुंची और ना ही कोई ऐसा सीधा प्रमाण अपने दम पर प्रस्तुत किया जिसे सत्ता कोर्ट में चुनौती दे सके। इसके उलट भाजपा ने बोफोर्स के तोप का मुंह उलटे कांग्रेस की ओर मोड़ दिया। भ्रष्टाचार के लिए बदनाम कांग्रेस इस मामले में लाख सफाई दे पर वह लोगों का विश्वास जीतने में कामयाब नहीं हो पाई।
पुलवामा हमले के बाद कांग्रेस की भूमिका को देखें तो एक बार फिर वही स्थिति थी कांग्रेस भले ही यह बोलती रही कि हमले में जो बारुद पहुंचा वह सत्ता की कमजोरी का परिणाम था पर वह इस मामले में पाकिस्तान के बहाने मोदी सरकार को नहीं घेर पाने में बड़ी चूक कर बैठी। इसके उलट नरेंद्र मोदी ने बालाकोट आतंकी कैंप पर एयर स्ट्राइक को अपना अचूक हथियार बना लिया।
जब कांग्रेस से देश को उम्मीद थी कि वह पुलवामा को लेकर सीधे पाकिस्तान पर आरोप मढ़े और सरकार पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाए वहीं उसके नेताओं के मत बंटे हुए दिखे। यदि ऐसा होता तो कांग्रेस के खिलाफ भाजपा का एंटी नेशनल एजेंडा नहीं चल पाता। भाजपा चाह ही रही थी कि कांग्रेस दूसरे मुद्दे पर उलझे और उसे फंसा दिया जाए।
पुलवामा हमले के बाद भाजपा के पास सारे मुद्दे गौंण हो गए। उसके पास सबसे बड़ा हथियार राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर मौजूद था। जिसका बखूबी लाभ वह नहीं भी उठाती तो कांग्रेस ने उसे पूरा मौका जरूर दिया। इसके पीछे बड़ी वजह यह हो गई कि कांग्रेस के भीतरखाने में इस बात को लेकर माथा पच्ची चलती रही कि वह राफेल को लेकर भाजपा को घेरे या पुलवामा को लेकर सरकार की विफलता का राग आलापे…
कांग्रेस मानें या ना मानें पर वह पुलवामा हमले के बाद भाजपा के जाल में इस कदर फंस गई कि उसके राफेल के मुद्दे के बाद उठाए गए जुमले ‘चौकीदार चोर है…’ का बुरा प्रभाव पड़ना शुरू हो गया। भाजपा चाहती ही थी कि कांग्रेस इस स्लोगन से बाहर ना निकल सके। क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे के बाद यह स्लोगन उल्टा पड़ना स्वाभाविक था।
खैर इन बातों पर तो आगे भी चर्चा होती रहेगी ही। बड़ी बात यह है कि पांच साल तक कांग्रेस ने केंद्र सरकार के खिलाफ कोई ऐसा आंदोलन खड़ा करने में पूरी तरह असमर्थ रही जिससे आम लोगों को लगे कि कांग्रेस का ऐजेंडा बदल चुका है। वह अब जनहित को लेकर सीधी लड़ाई लड़ने की स्थिति में आ खड़ी हुई है। कांग्रेस ने बार—बार यही जताया कि उसे केवल राहुल गांधी की ताजपोशी से ही मतलब है। जैसे ही यह होगा बाकि सब काम कर लिया जाएगा।
बेहतर होता कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पार्टी की कमान छोड़तीं और किसी दूसरे वरिष्ठ नेता को पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी जाती। उस अध्यक्ष को स्वतंत्र तौर पर काम करने के अवसर देने के बाद यदि राहुल गांधी को जिम्मेदारी मिलती तो यह ज्यादा स्वीकार्य होता। कांग्रेस को यह दिखाने की जरूरत थी कि वह बदल रही है। उसके विचार बदल रहे हैं। उसके काम करने की शैली बदल रही है।
ऐसा नहीं है कि हिंदुस्तान के लोग लोकतंत्र और तानाशाही में अंतर नहीं समझते। वे बेहतर समझते हैं। यदि कांग्रेस किसी दूसरे के लिए अध्यक्ष पद का दरवाजा खोलती तो उस पर राहुल की ताजपोशी के लिए इंतजार का आरोप भी काफी हद तक खत्म हो जाता। भाजपा के मूल एजेंडा में ही कांग्रेस के शीर्ष नेता रहे हैं। वह जमीनी राजनीति से यहां तक पहुंची है।
इसके उलट कांग्रेस का जमीन से नाता लगातार टूटता चला गया। उसके नेता दिखावे की राजनीति में ज्यादा विश्वास करते चले गए। जनहित के मुद्दे पर मौलिकता का अभाव कांग्रेस को खत्म करता चला गया। कांग्रेस की तरकश के सारे तीर भोथरे हो चुके हैं। उसे नए सिरे से अपनी दशा और दिशा के बारे में सोचने की जरूरत है।
राहुल चुनाव के अंतिम चरण में पहुंचने के बाद जिस तरह से मीडिया से बात करते नजर आए यदि यह प्रथम चरण के पहले से शुरू कर दिया होता तो परिणाम में थोड़ा परिवर्तन संभव था। प्रचार माध्यमों को लेकर कांग्रेस केवल मीडिया पर आरोप मढ़ते रह गई इसके उलट बिना किसी की परवाह किए भाजपा ने विपक्ष को घेरने में कोई कसर नहीं रख छोड़ा।
यह पहला अवसर है जब आजाद हिंदुस्तान में 2019 के चुनावों के दौरान विपक्ष निशाने पर रहा और सत्ता घायल विपक्ष के घावों पर मिर्ची डालता रहा। सुलगते विपक्ष को देखकर आम जनता में खुशी झलकती रही और सत्ता मदमस्त होकर अपना काम करता रहा।
यदि सही मायने में देखा जाए तो पूरे पांच साल तक केवल दिखावे की राजनीति हुई। सरकार ने अपनी विफलता को भी विपक्ष की कमजोरी की आड़ में छिपा लिया। आर्थिक मोर्चे पर लोगों को परेशानी के बावजूद देश हित के लिए सत्ता के पक्ष में खड़ा होना ज्यादा आवश्यक लगा।
कांग्रेस को बदलना होगा। नहीं तो कांग्रेस ही खत्म हो जाएगी। कांग्रेस को पूरे सिरे से विचार करना होगा कि वह अगले पांच बरस तक केवल और केवल जनहित के मुद्दे को लेकर संघर्ष करे। कांग्रेस यह मान ले कि बीते 2014 के चुनाव में जिस जनता ने उससे विपक्ष के नेता के पद तक की गरिमा छिन ली थी उसे वापस लौटा दी है। विपक्ष की मजबूती के साथ अगले पांच साल तक कांग्रेस जमीन पर मेहनत करे और राज्यों में अपने संगठन को जनता के विश्वास के लायक बनाए तभी 2024 में सत्ता के सपने देखे… नहीं तो भाजपा अभी उतनी बुरी नहीं दिख रही है।